आपका-अख्तर खान

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28 अगस्त 2010

में भी तो न्यायालय होकर आया हूँ

मेने सोचा
मी मुकदमे को
चलते
बहुत दिन हुए
सो चलो
आज में भी
न्यायालय का चक्कर लगा आऊं
में न्यायालय गया
पहले तो खबर मिली
आज अदालत में
वकीलों की हडताल हे
फिर सोचा
अगले तारीख पर
चलेंगे
अगली तारीख पर
साहब छुट्टी पर थे
तो इससे अगली तारीख पर
एक वकील साहब के स्वर्गवास से
वकील शोक में थे
मुझे मिल रही थी तारीख पर तारीख
सोचा चलो आज
न्यायालय के अंदर
में खुद जाता हूँ
वहां जाकर देखा
एक रीडर साहब बेठे हें
साहब का कई महीने पहले ट्रांसफर हो गया हे
जो भी कुछ हे रीडर साहब हे
चपड़ासी और रीडर की दुकड़ी हे
जो मजबूरी का नाम
महात्मा गाँधी की
कहावत समझ कर
गाँधी जी दिखा रहा हे
मनमाने तोर पर फीलगुड करा रहा हे
वही मजे में हें
मनमानी तारीख वोह ले जा रहा हे
वरना बहार मेरी तरह
दस महीने के आगे की
तारीख लेकर जा रहा हे
मुझ से मेरे बच्चे ने पूंछा
पापा न्याय का मन्दिर
अदालत केसी होती हे
अब आप बताओ में उसे क्या बताऊं
के इस मन्दिर में देवता कोन हें
और किसको चढावा जरूरी हे
बस बच्चा पुन्चता रहा और में टालता रहा
आखिर बच्चे को नींद आगयी
लेकिन बच्चे के इस सवाल का जवाब मुझे नहीं मिल सकने से
मेरी नींद उढ़ गयीऔर सोचने लगा कोई बात नहीं
मुकदमे का फेसला
मेरे वक्त नहीं तो बच्चे के वक्त और नहीं तो पोते के वक्त तो हो ही जाएगा।
अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान

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