हमने अपनी ऐसी हालत कैसे होने दी?
एक संवाद, एक सवाल और बहुत सी सच्चाइयाँ
"ख़ुद से ख़ुद की ग़द्दारी पर हैरत होती है..."
जब यह लाइन सुबह के अखंड टाइम में रमजानी भाई की आवाज़ से टकराई, तो पंडित जी ने चश्मा उतारकर माथा पकड़ लिया, और चुलबुल भगत जो हमेशा हंसी में सब टाल देता था, पहली बार चुप हो गया।
ये वो वक़्त है जब सवाल बहुत हैं, लेकिन जवाब ग़ायब हैं।
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मोहब्बत के हुक्म से मोहब्बत की नाफरमानी तक
क़ुरआन कहता है— "Wa'tasimu bihablillahi jami'an wa la tafarraqu"
(सभी अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थामो और आपस में मत बंटो)
मगर हम बंटे, फिर और बंटे, फिर मस्जिदों के रंगों में, फिर अजानों की आवाज़ में, फिर इमामों की तालीम में।
हमने खुद को गिरवी रख दिया—कभी जाति के नाम पर, कभी फिरके के नाम पर, और आज सियासत के एजेंडे में।
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सच्चर कमिशन की रिपोर्ट – आईना, जिससे मुँह मोड़ा गया
2006 में आई सच्चर कमिशन रिपोर्ट ने यह कह दिया था कि मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति देश की सबसे पिछड़ी जातियों से भी बदतर है।
शिक्षा, नौकरियाँ, बैंक लोन, सरकारी योजनाएँ—हर मोर्चे पर आंकड़े चीख रहे थे।
मगर हुआ क्या?
राजनीतिक दलों ने इस रिपोर्ट को गहने की तरह अपने चुनावी घोषणापत्र में पहन लिया।
और सत्ता में आकर उस गहने को तिजोरी में बंद कर दिया।
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राजनीति की सच्चाई – "वोट तुम्हारा, काम हमारा नहीं"
हर चुनाव में किसी न किसी नेता को मुसलमानों की याद आती है।
कभी टोपी पहनते हैं, कभी इफ्तार पार्टी करते हैं, कभी उर्दू में भाषण देते हैं—
मगर जैसे ही सत्ता मिलती है, वादे फाइलों में दब जाते हैं।
चुनावी मुसलमान, एक शब्द बन चुका है।
हर पार्टी "तुम्हारा भला" करने की बात करती है, लेकिन नीति वही—
"तुम जियो हमारे नारों पर, हम जियें तुम्हारी गुमनामी पर।"
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इतिहास की गलियों में खो गया नेतृत्व
1947 के बाद मुसलमानों का नेतृत्व बिखर गया।
जो लीडरशिप बची, वह या तो "सेकुलर मुखौटों" के पीछे छुप गई या "धार्मिक कट्टरता" में सिमट गई।
आज हालात यह हैं कि कौम के नाम पर बोलने वाले या तो TV डिबेट के कठपुतली हैं या दुआओं के ठेकेदार।
रूहानी सोच, सामाजिक सुधार, शिक्षित नेतृत्व—सब गायब हैं।
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कभी एक सवाल पूछिए खुद से...
> "हमने अपनी ऐसी हालत कैसे होने दी?"
क्या हमने खुद को सोचने का हक़ छोड़ दिया?
क्या हम खुद के भीतर बैठे 'ग़द्दार' को पहचानने से डरते हैं?
क्या हमने अपने बच्चों को दुआ के अलावा तालीम दी?
क्या हमने अपनी राजनीति को कभी सवालों के कटघरे में खड़ा किया?
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पंडित जी की अंतिम टिप्पणी
"राम और रहीम दोनों रोते हैं,
जब इंसान अपनी इंसानियत को भूल जाता है।"
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अब भी वक़्त है…
तालीम को हथियार बनाइए, मस्जिदों को लाइब्रेरी से जोड़िए,
कौम को वोट बैंक नहीं, इन्सान समझिए।
अपनी सियासत खुद कीजिए—जो आपको जाने, वही आपको चलाए।
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पंडित जी
Arun Unfiltered
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