*आम वकील*
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*मस्तक*" पर
रुतबे का टीका
*पद* से सजा साफा,
*मलाई* से भरा मुहँ,
और
दौलत की *माला*
से भरे *गले* के नीचे
क्या उतर सकता हैं एक *सत्य*
सुन सकते हैं ,
*करुण क्रंदन*,
मुझ *आम वकील* का ?
जो, जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं
के लिये सह रहा हैं,
*प्रचंड ताप* ,
खुले आसमान के नीचे।
कर रहा है, *जद्दोजहद*
*जीवन और सम्मान* बचाने का ।
और, *मर* रहा हैं,
*तिल तिल कर*,
कभी *न्याय* तो कभी *अस्तित्व* बचाने को I
अरे श्रीमन ,
आपने *भरमाया* था,
या *समझाया* था,
मालूम नहीं?
मगर,
*वादा था*
मेरे जीवन और सम्मान की रक्षा का,
समाज की बेहतरी का I
मगर, क्या हुआ?
अब तो आप
*सम्मानित* *पद* पर हैं,
*रसूखदार* हैं ,
*दौलत शौहरत* के वारे न्यारे हैं,
सबकुछ है ,श्रीमान I
फ़िर ,
क्यों नहीं है *दिल*?
सोचते क्यों नहीं
*हमारी दुर्दशा* पर ? क्या पूछेंगे
*सवाल*,
*सत्ता और सरकारों* से ?
हम, *सम्मान बचाएं या जीवन*?
शायद नहीं I
*वंचितों को न्याय*
दिलाने आये थे,
खुद *वंचित हैं हम*,
*न्याय से* ,
कब बोलेंगे आप,
शायद अभी नहीं ?
*सत्ता की मलाई*
जो गटकनी है ,
फिर *चुनाव* भी दूर है ।
सच है
ना साहब ?
फिर,
मुझसे क्या वास्ता,
क्योंकि,
में *आम वकील*,
और आप *ख़ास* I
क्योंकि, जानते हैं आप
मै कल ,
फिर *भरमा* लिया जाऊँगा ,
*जाति*,
*धर्म या प्रलोभनों*
से,
या, दब जाएगी
*मेरी आवाज़*
*नान प्रेक्टिशनर्स* के *कौलाहल* में ?
वज़ह ,
कुछ भी हो
मगर, दुर्दशा मेरी ही हैं ,
क्योंकि,
मैं *आम वकील* हूँ I
*डॉ. महेश शर्मा*,
(एडवोकेट)
सदस्य बार काउंसिल
ऑफ राजस्थान,
जयपुर
Mob. 9414053820
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