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01 दिसंबर 2021

नेशनल राईटर्स एन्ड कल्चर फोरम के कुँवर अनुराग जी द्वारा तैयार मेरा ,, कीर्तिवर्धन सर, जीवन चित्र, धन्यवाद अनुराग जी--

 

दोस्तो नमस्कार
नेशनल राईटर्स एन्ड कल्चर फोरम के कुँवर अनुराग जी द्वारा तैयार मेरा ,, कीर्तिवर्धन सर, जीवन चित्र, धन्यवाद अनुराग जी--
*परिवार को जाने* श्रृंखला की *उन्नीसवीं कड़ी* में आज *राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त*, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) के साहित्यकार व समाजसेवक, *श्री अ कीर्तिवर्धन*, जिनकी गरिमामयी उपस्थिति से हमारा ये परिवार गौरवान्वित है..., का जीवनवृत प्रस्तुत करते हुए हार्दिक प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है।
*कीर्तिवर्धन जी* का जन्म 9 अगस्त, 1956 को शामली (उ.प्र.) में हुआ था। आपके पिता *श्री विद्या राम अग्रवाल*, इंटर कॉलेज में प्रिंसिपल थे।
आपकी प्रारंभिक शिक्षा (12वीं कक्षा तक) *शामली* में ही पूर्ण हुई। यद्यपि आपकी माँ निरक्षर थी, तथापि न केवल वह घर के बच्चों वरन, पास- पड़ोस के बच्चों को भी पढ़ने के लिए बहुत प्रोत्साहित करती थी, तथा अपने घर मे पढ़ने के लिए बुलाती थीं। *माँ के प्रोत्साहन ने आपको सदैव पढ़ाई के लिए प्रेरित किया।*
70 के दशक में, उन दिनों गांव में मेले लगा करते थे, जिसमें शाम को *कवि सम्मेलन* भी हुआ करते थे। आप प्रत्येक कवि सम्मेलन को सुनने जाया करते थे। अपने साथ, आप कागज़ व पेन भी ले जाया करते थे, व इन कविताओं को लिखने की कोशिश करते थे। इन कवि सम्मेलनों से सीखकर, आपने तुकबंदी करनी शुरु कर दी, तथा छोटी छोटी कवितायें लिखने लगे।
उन दिनों फोन तथा मोबाइल नहीं हुआ करते थे, तो रिश्तेदारों को चिट्ठियां लिखी जाती थीं। आपके घर में, आपकी लेखन प्रतिभा से प्रभावित होकर, पिता जी ने, रिश्तेदारों को चिट्ठियां लिखने का दायित्व आपको ही दे दिया था। इन चिट्ठियों ने, आपकी लेखन प्रतिभा को काफी विकसित किया। आप बड़े रोचक रूप से काव्यात्मक चिट्ठियां लिखा करते थे। आपकी चिट्ठियां इतनी रोचक होती थी, कि पास- पड़ोस के लोग भी आपसे चिट्ठी लिखवाने आया करते थे।
वर्ष 1972 में जब आप दसवीं कक्षा में थे, तब आप की बुआ, जो अध्यापिका थी, के विद्यालय में *काव्य प्रतियोगिता* का आयोजन किया गया, जिसमें आपकी बुआ ने भाग लिया। इस काव्य प्रतियोगिता के लिए, आपकी बुआ ने आपसे एक कविता लिखकर देने के लिए कहा। इस कविता का मुखड़ा *"हम तुमसे जुदा होकर, रोते हैं बहारों में"* विद्यालय द्वारा दिया गया था।
आपने इस मुखड़े पर, कविता लिखी, जिसको *प्रथम पुरस्कार* प्राप्त हुआ। इस वजह से, पूरे घर- खानदान में आपकी *काव्य प्रतिभा* का सिक्का जम गया तथा बहुत तारीफ हुई।
आपका लेखन इसी तरह से चलता रहा, और आप इधर-उधर कॉपी पर लिखते रहे, पर ये लेखन संकलित नहीं हो पाया।
वर्ष 1974 में इंजीनियरिंग की परीक्षा देने आप आगरा आए तथा आगरा किला घूमने गए। तब तक आप सोचते थे कि किला पत्थरों से बना है। पर यहाँ आपको पता चला कि ये लाहौरी ईंटों से बना है और उसके ऊपर पत्थर लगाए गए हैं। ये जानकर आप अचंभित हुए और आपने इस पर तुरंत एक कविता लिखी, जिसकी दो पंक्तियाँ निम्न हैं-
*किले की दीवारों में कितना पत्थर लगा है,*
*अंदर तो ईंटे हैं, बाहर पत्तर लगा है।*
आपकी आगरा यात्रा के बाद ही, असल रूप से आपकी साहित्यिक यात्रा शुरू हुई।
आपने *बी.एस.सी.* व *एम.एस.सी. (गणित)*, अपने चाचा जी के पास रहते हुए, *हिंदू कॉलेज, मुरादाबाद* से किया। कॉलेज में आप स्टूडेंट यूनियन व *ट्रेड यूनियन* से भी सक्रिय रूप से जुड़े रहे तथा लेखन भी चलता रहा।
एम.एस.सी. करने के दौरान ही, आपकी नौकरी *नैनीताल बैंक* में लग गई तथा आपकी प्रथम पोस्टिंग *रामनगर* में हुई। *बैंक की पत्रिका* में, समय समय पर आपकी अनेकों रचनाएं छपती रही। साथ ही आप, अपने लेखन को डायरी में भी लिखते रहे।
वर्ष 1983 में आपका तबादला *मुजफ्फरनगर* हो गया। मुजफ्फरनगर आकर, आप की कविताएं व रचनाएं, *स्थानीय समाचार पत्रों* में नियमित रूप से छपने लगी।
वर्ष 1985- 86 में आप *बैंक की पत्रिका के संपादक* भी रहे। इसी दौरान आप, सक्रिय रूप से बैंक में *ट्रेड यूनियन* से भी जुड़े रहे तथा काफी लंबे समय तक *राष्ट्रीय सचिव* भी रहे।
वर्ष 1987 में आपका विवाह *रजनी अग्रवाल* जी से हुआ। रजनी जी ने, आपको आपकी साहित्यिक यात्रा में सदैव सहयोग किया। आप बताते हैं कि, *आपकी पत्नी ही आपकी प्रथम श्रोता है* तथा आपका हमेशा उत्साहवर्धन करती रहती हैं।
वर्ष 1983 से वर्ष 1999 तक, आपकी रचनाएँ, अनवरत स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित होती रहीं। परंतु इस दौरान आपकी कोई भी रचना किसी पत्रिका में नहीं छपी।
वर्ष 1999 में आपका दिल्ली ट्रांसफर हो गया। उन दिनों आप, *दीवाली व नववर्ष के शुभकामना संदेश*, प्रतिवर्ष *एक सामाजिक विषय पर कविता लिखकर*, अपने मित्रों, संबंधियों तथा बैंक की करीबन 100 शाखाओं को भेजा करते थे। इसने भी आपकी लेखन प्रतिभा को एक नया आयाम दिया।
जनवरी, 2000 में, जब आपने नववर्ष का संदेश बनाया और आप फोटोस्टेट करवाने गए, तो फोटोस्टेट दुकान वाले ने आपसे आपका संदेश मांग कर अपने दुकान के शीशे पर चिपका दिया। संदेश पर एक व्यक्ति की नजर पड़ी और उसने फोटो स्टेट वाले से पूछा कि यह किसने लिखा है। तो उसने बताया कि मेरे यहाँ, एक व्यक्ति फोटोस्टेट करवाने आते हैं, वही कविताएं लिखते हैं। तो उस व्यक्ति ने आपका कांटेक्ट नंबर मांगा। परंतु फोटोस्टेट वाले के पास आपका कांटेक्ट नंबर उपलब्ध नहीं था।
करीब छह माह पश्चात उसी फोटोस्टेट वाले के ज़रिये, आपकी उस व्यक्ति से मुलाकात हुई, और आपको पता चला कि वो बिहार के एक बहुत बड़े साहित्यकार *रमेश नीलकमल* जी हैं। वो प्रत्येक 6 महीने में, अपने बेटे से मिलने दिल्ली आया करते थे। दिसंबर- जनवरी में वो दिल्ली में ही थे जब उन्होंने, आपका शुभकामना संदेश, फोटोस्टेट की दुकान पर देखा था। तत्पश्चात वो 6 माह बाद दिल्ली आए और इस तरह से आपकी, उनसे मुलाकात हो पाई। बाद में पता लगा कि वो आपके पड़ोस वाले घर में ही रहते थे।
उनसे मिलने के पश्चात, नियमित रूप से, उनके साथ आपकी बैठक होने लगी। उन्होंने ही *आपको अनेक पत्र-पत्रिकाओं के बारे में बताया तथा उनका पता दिया, और आपसे अपनी रचनाएं व कविताएं, इन पत्रिकाओं में भेजने के लिए कहा।*
पहले आप *कीर्तिवर्धन* के नाम से लिखा करते थे, तत्पश्चात कुछ दिन आपने *कीर्तिवर्धन आजाद* के नाम से भी लिखा।
*नीलकमल जी* अंक शास्त्र के भी ज्ञाता थे, तो उन्होंने आपको सुझाव दिया कि आप अपना नाम बदल कर *अ कीर्तिवर्धन* कर ले, तो यह नाम आपके लिए बहुत उपयुक्त होगा तथा इस नाम से आपको बहुत यशकीर्ति प्राप्त होगी।
यह अक्षरशः सत्य साबित हुआ। नाम बदलने के बाद आपके लेखन को एक नया आयाम मिला, और बहुत यश भी प्राप्त हुआ। अब तक आपकी रचनाएं *करीबन 1500 पत्र-पत्रिकाओं* में प्रकाशित हो चुकी हैं। इसी बीच दिल्ली साहित्यजगत में भी आपको अनेक साहित्यकार जानने और मानने लगे तथा आपको हिंदी साहित्य सभी कार्यक्रमों में आमंत्रित किया जाने लगा।
आपकी व्यस्तता बढ़ जाने के कारण वर्ष 2005 में अपने ट्रेड यूनियन से संयास ले लिया। वर्ष 2005 से अब तक आपकी *12 पुस्तकें* प्रकाशित हो चुकी हैं, तथा अनेक पुस्तकों का अनुवाद *नेपाली, कन्नड़, व मैथिली भाषा* में हो चुका है।
आप मुख्यरूप से *हाइकु, मुक्तक, कविताएं (फ्रीवर्स), निबंध व आलेख* लिखते हैं।
अपनी फ्रीवर्स की कविताओं के बारे में, आप एक रोचक घटना का ज़िक्र करते हैं, कि एक बार आपने, अपनी एक कविता भोपाल की पत्रिका *साहित्य परिक्रमा* को भेजी। वहाँ से जवाब आया कि आपकी कविता छंद में नही है और पत्रिका में केवल छंदयुक्त कविताओं को ही प्रकाशित किया जाता है। आपको ये जानकर, अपने ऊपर निराशा हुई कि, आपको छंदों का ज्ञान नहीं है। परंतु इसी बात ने आपको एक कविता लिखने को प्रेरित किया, जिसकी कुछ पंक्तियाँ निम्न हैं-
*नहीं जानता गीत किसे कहते हैं,*
*छंदों की वह रीत किसे कहते हैं,*
*क्या छंद बिना कोई भावों को नहीं कह पाएगा,*
*दृष्टिहीन, नागरिक का अधिकार नहीं पाएगा,*
*केवल मीठा खाने से क्या पता चलेगा,*
*कभी कसैला, कभी हो खट्टा, स्वाद बनेगा,*
*मीठे को महिमामंडित करने का, आधार बनेगा।*
यह कविता लिखकर, आपने पत्रिका संपादक को भेज दी। कुछ दिन पश्चात संपादक का फोन आपके पास आया, और उन्होंने कहा कि, आपने बिल्कुल उपयुक्त कहा है, मैं आपसे अक्षरशः सहमत हूँ। तत्पश्चात उस पत्रिका में आप की अनेकानेक रचनाओं को स्थान दिया गया।
वर्ष 2000 से 2005 तक, आपने तीन डिप्लोमा भी किये- *मर्चेंट बैंकिग, एक्सपोर्ट मैनेजमेंट तथा मानव संसाधन विकास* में।
*मर्चेंट बैंकिंग* में डिप्लोमा के दौरान आपने एक शोध पत्र लिखा - *शेयर मार्केट में ग्रामीण क्षेत्र का योगदान*। इस विषय पर पहले कभी भी शोध नहीं किया गया था। इस शोध लेख की बहुत प्रशंसा हुई। आज भी *नाबार्ड (NABARD)* में इस शोध लेख को पढ़ाया जाता है।
*श्री नीलकमल जी* से आपका संपर्क, जीवन पर्यंत बना रहा। वो आपको समय-समय पर लेखन संबंधित दिशानिर्देश देते रहे, जिससे आपके लेखन में बहुत सुधार हुआ और वह आपके लिए वरदान साबित हुआ।
इसी समय के दौरान आप, कई शहरों की, अनेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ गए तथा साहित्य कार्यक्रमों में भी नियमित रूप से जाने लगे। आपको *व्याख्यान देने व पेपर पढ़ने* के लिए देश के विभिन्न भागों से आमंत्रित भी किया जाने लगा।
आपने कई *शोध लेख* भी लिखे जिसमें से एक शोध लेख *शूद्र भी क्षत्रिय हैं*, करीबन *50 पत्रिकाओं* में प्रकाशित हुआ।
बिहार की एक साहित्यिक संस्था ने आपको *विद्या वाचस्पति* की उपाधि से सम्मानित भी किया।
वर्ष 2012 में आपका तबादला मुजफ्फरनगर हो गया, तथा वर्ष 2016 में आप सेवानिवृत्त हो गए।
सेवानिवृत्त होने के पश्चात आप *समाज सेवा* में जुट गए, तथा मुजफ्फरनगर में *ग्रामीण क्षेत्रों के करीब 20 25 विद्यालयों* से जुड़ गए और अभी तक जुड़े हुए हैं। इन विद्यालयों में आप *मोटिवेटर* के रूप में नियमित रूप से जाते हैं और बच्चों को *भाषण कला तथा अन्य विषयों पर दिशानिर्देश देते हैं व उत्साहवर्धन करते हैं।*
अब तक आपको कई विश्वविद्यालयों/ संस्थानों में *शोध पत्र* पढ़ने तथा *व्याख्यान* देने के लिए आमंत्रित किया जा चुका है, जिसमें *सिक्किम विश्वविद्यालय, नेपाल प्रेस क्लब, राजस्थान के कई विश्वविद्यालय* शामिल हैं।
आपकी बाल कविताओं की एक पुस्तक *सुबह सवेरे* कर्नाटक व उत्तराखंड के पाठ्यक्रम में भी शामिल है।
आपका *नवोदित लेखकों* को यह संदेश है कि, *अनवरत लेखनरत रहें... समय के साथ लेखन में सुधार होता जाएगा*... और धीरे धीरे आपकी पहचान बनने लगेगी। कोशिश करनी चाहिए कि, *लेखन सामाजिक विषयों पर हो, जिससे कि समाज जागृति व समाज का उत्थान हो सके।*
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*© नेशनल राइटर्स व कल्चरल फोरम*
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
*//जीवन परिचय//*
नाम- *अ कीर्तिवर्धन*
पिताजी का नाम- *श्री विद्या राम अग्रवाल*
जन्मतिथि- *09 अगस्त 1956*
जन्मस्थान- *शामली (उ.प्र.)*
*शिक्षा*
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*परास्नातक (गणित)*, हिन्दु कॉलेज, मुरादाबाद
*मर्चेन्ट बैंकिंग* ( इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मर्चेंट बैंकिंग , दिल्ली )
*एक्सपोर्ट मैनेजमेंट* (नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एक्सपोर्ट मैनेजमेंट, चेन्नई )
*मानव संसाधन विकास* ( नेशनल कॉउन्सिल फॉर लेबर मैनेजमेंट, चेन्नई )
सेवा- *नैनीताल बैंक लिमिटेड* से सेवानिवृत
*प्रकाशित पुस्तकें*
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- *मेरी उड़ान*
- *सच्चाई का परिचय पत्र*
- *मुझे इंसान बना दो*
- *सुबह सवेरे*
- *दलित चेतना के उभरते स्वर*
- *जतन से ओढ़ी चदरिया* (अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध वर्ष 2009) पर वृद्ध भारत का साक्ष्य)
- *चिंतन बिंदु*
- *हिन्दू राष्ट्र भारत* ( निबंध संग्रह)
- *मानवता की ओर*
- *दृष्टि संसार*
- *नरेंद्र से नरेंद्र की ओर* (प्रकाशनाधीन)।
*विशेष*
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- कल्पांत पत्रिका का विशेषांक-*साहित्य का कीर्तिवर्धन* (प्रकाशित)
- व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर *सुरसरि* का विशेषांक *निष्णात आस्था का प्रतिस्वर* कीर्तिवर्धन
*अनुवाद*
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- *सुबह सवेरे* का मैथिलि व कन्नड़ में अनुवाद व प्रकाशन
- *मुझे इंसान बना दो* का उर्दू में अनुवाद
- *सच्चाई का परिचय पत्र* का कन्नड़ में अनुवाद
- अनेक रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद व *वर्ल्ड ऑफ़ पोएट्री* प्रकाशन
- अनेक रचनाओं का *तमिल, अंगिका व अन्य भाषाओं में अनुवाद*
- अनेक चुनिंदा कविताओं का नेपाली अनुवाद *अक्षरार्थ*
*संपादन*
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- नैनीताल बैंक स्टाफ एसोसियेशन की पत्रिका *स्मारिका*
- डॉ हनुमंत रनखाम्ब पर केन्द्रित *कल्पान्त* का विशेषांक
*पत्र वाचन*
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- अनेक विषयों पर पत्र वाचन (लगभग 12)
- अनेक सामाजिक विषयों पर *शोध लेख*
*सम्मान एवं उपाधियाँ*
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*100 से अधिक सम्मान व उपाधियाँ, प्रशस्ति पत्र , विद्यावाचस्पति (Doctorate) एवं विद्यासागर (D.Lit.)की उपाधि* सहित।
*अन्य*
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- ट्रेड यूनियन लीडर, समाज सेवी, अनेको संस्थाओं से जुड़ाव व पदाधिकारी, अनेक पत्रिकाओं में सहयोगी सम्पादक, सम्पादक मंडल सदस्य, प्रदेश संयोजक, आदि।
- वर्तमान में विभिन्न विद्यालयों में प्रेरक के रूप में सक्रिय, अनेक विषयों पर शोध कार्य जारी व समाज सेवा में सक्रिय।
दरिया हूँ नही चाहता, समंदर में समा जाऊँ,
मिटाकर वजूद खुद का, समंदर मैं कहलाऊँ।
जब तक मैं रहूँ दरिया, किसी के काम आऊँ,
मिटाऊँ प्यास जन जन की, खार से बच जाऊँ।
*अ कीर्तिवर्धन*
******************
*जमाने को खल गया*
नजरें उठाकर चलना, जमाने को खल गया,
सरे राह मुस्कराना, जमाने को खल गया।
नूर ए फलक कहाती, जो लब सिले रहते,
गलत का विरोध करना, जमाने को खल गया।
सिर पर रही ओढनी, जिस्म नंगा कर दिया,
सच को बताना सच, जमाने को खल गया।
झुककर सलाम करना, हर जुल्म चुप ही सहना,
गर्दन उठाकर चलना, जमाने को खल गया।
खेलते जो जिस्म से, रहनुमा थे कौम के,
नफरत मेरा दिखाना, जमाने को खल गया।
कर दिया जुदा मुझको, तीन तलाक बोलकर,
हलाला पर आवाज उठाना, जमाने को खल गया।
*अ कीर्तिवर्धन*
**************************
हौसला हो पास जिसके, पंख की जरुरत नहीं,
प्रीत का विश्वास संग हो, साथ की जरुरत नहीं।
आस्था ने सदा जिसे, जीने का संबल दिया हो,
हर दिवस खुशियाँ मिलें, मधुमास की जरुरत नहीं।
दिल मिलें न मिलें कभी, ख्याल भी हों जुदा जुदा,
साथ फिर भी चल रहे, अलगाव की जरुरत नहीं।
एक हो मंजिल अगर, मुसाफिर हों अलग अलग,
अजनबी अपनों से लगें, अपनों की जरुरत नही।
हो दिवाना इश्क में, ख्यालों में खोया हुआ,
भीड में रहकर भी तन्हां, तन्हाई की जरूरत नही।
आस्था और विश्वास का, हो मधुर मिलन जहाँ,
हो गया सब खुद समर्पित, समर्पण की जरूरत नही।
*डॉ अ कीर्तिवर्धन*
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होते हैं गुनाह यूँ ही, अक्सर इस जमाने में,
उम्र बीत जाती है, किसी रूठे को मनाने में।
खो जाती हैं खुशियाँ, इसी जद्दोजहद में,
फूलों का कत्ल हुआ, पत्थर को मनाने में।
*अ कीर्तिवर्धन*
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चंदामामा शाम ढले जब, तू मेरी छत पर आता है,
रूप बदलना तेरा नित दिन, मेरे मन को भरमाता है।
कभी तू बच्चा, कभी बडा बन, खेल खेलता रातों में,
कभी निकलता पूर्ण रात में और एक दिन छिप जाता है।
तारों के संग आँख मिचौली, बादल के पीछे छिप जाना,
तम हरने का तेरा साहस, मुझमें हिम्मत भर जाता है।
*अ कीर्तिवर्धन*
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