ऐसे ही ख़यालों में मैं
अक़्सर लौट जाता हूँ
उस गुलमोहर के पास वाले मोड़ पर
जिसकी शीतल छाँव में
स्कूल से आते जाते ठहर जाता था मैं
उसके फूलों को देखता
मन ही मन मुस्काता था,
सड़क पर छितराये हुए
उसके फूलों की पत्तियों को
अपनी किताबों में रख देता था अक़्सर,
उसकी पत्तियों से
छनकर आती सूरज की किरणों को
हथेलियों में भर लेता था अक़्सर,
गर्मियों की दोपहर में
उसकी हल्की मगर ठंडी छाँव में
कुछ पल यूँहीं रुका रहता था अक़्सर,
आज भी कहीं जब
कोई गुलमोहर नज़र आता है तो
मैं उसकी छाँव में
ख़ुद को ही ढूँढा करता हूँ अक़्सर,
दोनों हाथ फैलाकर
सूरज की किरणों को समेटने लग जाता हूँ मैं
मगर निराशा हाथ लगती है जब
ख़ुद को ही नज़र नहीं आता हूँ मैं
ये दिखने छिपने का खेल नहीं समझ पाता हूँ मैं
ख़ुद को बहुत ही याद आता हूँ मैं
'नाशाद' ख़ुद को ही बहुत याद आता हूँ मैं।
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