कहां नहीं हैं पटेल और पटवारी....
पटवारी और पटेल किसी भी गांव के सम्मानित व्यक्ति होते हैं। पटवारी एक ऐसा अधिकारी है जो गांव की ज़मीन का पूरा लेखा जोखा रखता है। ज़मीन संबंधी तमाम काम उसके जिम्में होने से गांव में उसकी हैसियत कलेक्टर से कम नहीं होती है। पटवारी का महत्व इसी बात से आंका जा सकता है जब एक युवक कलेक्टर बना और गांव में आ कर अपनी दादी को बताया मेरी नौकरी लग गई मैं कलेक्टर बन गया हूं। दादी ने कहा यह क्या नौकरी हुई पटवारी बनता तो जानती। ऐसे ही गांव के पटेल की इज्जत होती है। सभी मामलों में मांगे या बिना मांगे सलाह को सभी सम्मान की नजर से देखते हैं। गांव में इन दोनों का रुतबा और दबदबा रहता है।
ये सम्मानित पद या व्यक्ति समाज में इनके गुणों के आधार पर एक लाक्षणिक अभिव्यक्ति बन गए हैं। जिसका अर्थ अर्थ किसी व्यक्ति की महत्वाकांक्षाओं या उसके व्यवहार को दर्शाना है जो उसकी वर्तमान स्थिति से बहुत बड़ा है। जब भी किसी के बोलने में वाचाल आ जाती है, बिना मांगे सलाह देने लगता है, बड़बोलापन दिखता है, हर काम के होने का श्रेय स्वयं लेने लगता है हम कहते है ज्यादा पटेल मत बन या बड़ा पटवारी बना फिरता है। ये यह वाक्यांश सीधे तौर पर एक मुहावरा नहीं है, बल्कि एक लाक्षणिक अभिव्यक्ति है जो उसके व्यवहार और महत्वाकांक्षा को बताता है।
मेरे 45 वर्षों के सेवाकाल और इसके उपरांत मैने देखा और महसूस किया कि ऐसे पटवारी और पटेल बने व्यक्ति सर्वत्र व्याप्त हैं। सरकारी या गैर सरकारी क्षेत्र हो , राजनीतिक, धर्म, सामाजिक, साहित्यिक या अन्य कोई, ये वाक्यांश अक्सर सुनते - सुनाते देखने को मिल जाते हैं।
हर क्षेत्र में कुछ लोग या तो चमचागिरी कर के या फिर अपने कार्य कर यह उपाधि प्राप्त कर लेते हैं। जिस प्रकार भेद नीति अपना कर पटवारी खेत के दोनों और के किसानों को यह कह कर, चिंता मत कर मैं तेरा खास हूं, अपने कौशल से खुश रखता है वैसे ही सभी क्षेत्रों में भी लोग अपने कौशल का प्रदर्शन करते देखे जाते हैं। मीटिंग में जब एक काम किसी को सौंपने की बात आई तो कलेक्टर ने किसी का नाम ले कर कहा उसे बुलाओ वह बड़ा पटेल बना फिरता है। एक अधिकारी के सामने जब एक कर्मचारी कुछ ज्यादा ही बोल रहा था और अपनी डींगे हांक रहा था तो अधिकारी ने कहा बहुत हो गया, ज्यादा पटवारी मत बन।
राजनीति में तो मंत्री जी ने जरा कंधे पर हाथ क्या रख दिया बस पटेल बन गए। इसी का फायदा उठा कर पटेलाइ करने लगा। सभी समाजों में पटवारियों और पटेलों की कमी नहीं। दिनभर ऐसे लोग पटेलाई करते खूब नजर आते हैं। कोई भी सामाजिक या धार्मिक कार्य हो कुछ लोगों का काम पटलाई करना होता है।
सरकारी सेवा के दौरान ऐसे जुल्मों को फुटबॉल की तरह खूब उछलते देखा। पिछले तीन वर्ष पूर्व अछूते रह गए साहित्य के क्षेत्र में यह सोच कर कदम रखा की यह तो विशुद्ध साहित्य का क्षेत्र है जहां साहित्यकार कविता,कहानी,उपन्यास आदि लिखते हैं , विभिन्न भाषाओं में साहित्य लिख कर समाज को आईना दिखाते हैं, साहित्य को समृद्ध कर संरक्षण करते हैं। कहा जाता है साहित्य किसी भी समाज का आईना होता है। यहां तो कोई पटवारी या पटेल नहीं होगा।
मेरी मेरी धारणा यहां भी कसौटी पर खरी नहीं उतरी और तीन साल में महसूस किया यहां भी पटवारी और पटेलों की कमी नहीं है। सभी इस श्रेणी में नहीं हैं , कुछ हैं जिन्हें नि:संदेश इस श्रेणी में रखा जा सकता है। अधिकांश अपने सृजन में लीन रहते हैं। कई ऑन लाइन मंचों से जुड़ कर अपनी सृजन क्षमता में निखार लाने का प्रयास करते हैं। उन्हें किसी सम्मान या पुरस्कार से कोई लेना देना नहीं है, न ही वे इस दौड़ में खड़े दिखाई देते हैं।
इस संबंध जब एक साहित्यकार से चर्चा हुई तो कहने लगे " आज के समय में जिस प्रकार पुरस्कार या सम्मान मिलते हैं , दो - चार पुरस्कृत मिल जाना श्रेष्ठ साहित्यकार की पहचान नहीं हो सकती। केवल पुरस्कार के लिए लिखना साहित्यकार होने का दंभ भरना स्वयं अपने आपको धोखा देना है। वास्तविक साहित्यकार वह है जो केवल अपने सृजन में लगा रहता है और उसके सृजन से समाज को दिशा मिले। जितने भी कालजई साहित्यकार हुए उन्हें कौन से पुरस्कार मिले, न उन्होंने कभी पुरस्कार के सोच से सृजन किया। उनका नाम इतना ऊंचा हो गया कि उनकी स्मृति में उनके नाम से पुरस्कार दिए जाते हैं। क्या आज है कोई साहित्यकार का ऐसा नाम ।"
अब फिर मुख्य विषय से जुड़ते हैं । साहित्य के पटेल और पटवारी अपनी बुद्धि कौशल का उपयोग जिस प्रकार व्यवहार और काम करते हैं वह यूं तो जग जाहिर होता है और सभी के सामने हैं। कोई नई कृति आएगी तो मीनमेख निकालना, किसी के साहित्यिक कार्य को नीचा दिखाना, साहित्यकारों को भड़कना, किसी को पुरस्कार दिलवाने का लालच दे कर काम करवाना, दूसरे का कार्य और कार्यक्रम को अपना बनाने का प्रयास करना, हर कार्य का श्रेय स्वयं लेना, भेद नीति अपना कर वर्चस्व कायम रखना.....आदि आदि ऐसे ही अन्य कार्यों और विचारों से पटलाई करते दिखाई देते हैं। अन्य साहित्यकारों से ऐसे लोगों की वृति छुपी नहीं हैं, सब को पता है, पर बना हुआ सम्मान बना रहे, मौन रहते हैं।
न केवल साहित्य के क्षेत्र में वरन सभी क्षेत्रों में ऐसे पटवारियों और पटेलों को क्या कहें । उन्हें पता नहीं वे उपहास के पात्र बन रहे हैं। अपने कृत्यों से स्वयं ही अपनी छवि बिगाड़ रहे हैं। शायद एहसास हो भी पर अपनी आदत से मजबूर हैं, आदत जो बन चुकी है। काश व्यंग्यकार होता।
( इस अभिमत का संबंध किसी व्यक्ति विशेष से नहीं हैं, किसी का सहमत होना जरूरी नहीं है,मेरे अपने निजी विचार हैं ) ।
डॉ. प्रभात कुमार सिंघल, कोटा
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