वो अब भी यहीं है
कमरे में सन्नाटा है,
पर ऐसा नहीं कि कुछ सुनाई न दे।
घड़ी की टिक-टिक,
और दरवाज़े के नीचे से रेंगती हल्की हवा—
सब कुछ वैसा ही है, जैसा तब था,
जब वो थी।
उसकी चूड़ियों की खनक अब नहीं सुनाई देती,
पर दीवारों में जैसे कुछ गूंजता रहता है।
कभी लगता है, उसने आवाज़ दी,
कभी लगता है, मैंने जवाब दिया।
पर फिर एहसास होता है—
कमरे में मैं अकेला हूँ।
रात को जब पानी पीने उठता हूँ,
तो टेबल पर रखा गिलास
ठीक वहीं होता है,
जहाँ वो हमेशा रखती थी।
मैंने उसे छुआ भी नहीं,
पर कोई तो रख रहा है उसे वहाँ।
अलमारी अब भी उसकी खुशबू से भरी है।
उसके दुपट्टे में अब भी उसकी हथेलियों की सिलवटें हैं।
पर जब दरवाज़ा खोलता हूँ,
तो हवा में हल्की-सी ठंडक उतर जाती है।
गौरैया अब नहीं आती।
लोग कहते हैं, जिस घर में कोई चला जाए,
वहाँ परिंदे लौटकर नहीं आते।
पर मुझे यकीन है,
अगर कभी वो लौटी,
तो गौरैया भी लौट आएगी।
वो कहीं नहीं गई।
या शायद, मैं ही वहीं ठहर गया,
जहाँ वो मुझे छोड़कर चली गई थी।

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