प्राकृत भाषा को अपनाने और प्रोत्साहित करने का आह्वान
सम्राट अशोक के समय प्राकृत को था राजभाषा का दर्जाः डा. तारा डागा
अकलंक शोध संस्थान ने आयोजित की दो दिवसीय राष्ट्रीय प्राकृत संगोष्ठी
कोटा। अकलंक शोध संस्थान की ओर से आयोजित दो दिवसीय अखिल भारतीय प्राकृत संगोष्ठी में जैन धर्मावलंबियों ने हड़प्पा काल से प्रचलित प्राकृत भाषा को अपनाने और प्रोत्साहित करने पर जोर दिया।
अकलंक पब्लिक स्कूल वसंत विहार में आयोजित संगोष्ठी में मुनि श्री आदित्य सागर जी महाराज ससंघ के सानिध्य में वक्ताओं ने कहा कि यदि जैन धर्मावलम्बी अपने गौरव को नहीं समझेंगे तो समाज के अन्य वर्गों से क्या अपेक्षा की जा सकती है।
प्राकृत भारती जयपुर की व्याख्याता डा. तारा डागा ने कहा कि प्राकृत में पर्यावरण संरक्षण पर सबसे अधिक जोर दिया गया है। प्राकृत भाषा के संरक्षण से ही हम संस्कृति की रक्षा कर सकते हैं। तीर्थंकर महावीर और तथागत बुद्ध ने भी उपदेशों के लिए प्राकृत को अपनाया। इससे स्पष्ट है कि उस समय प्राकृत ही लोकभाषा थी। डा. तारा डागा ने कहा कि सम्राट अशोक के समय प्राकृत को राजभाषा का दर्जा प्राप्त था। सम्राट अशोक ने राजाज्ञाओं के लिए प्राकृत भाषा का ही उपयोग किया। सबसे प्राचीन साहित्य भी प्राकृत भाषा में है। दरभंगा विश्वविद्यालय, बिहार के डा. वीरचंद्र जैन ने कहा कि प्राकृत साहित्य में समरसता और सभी के लिए समानता है। इसके साथ ही प्राकृत में स्पष्ट रूप से ऊंच-नीच जैसे किसी भी तरह के भेदभाव का निषेध है।
प्राकृत भाषा का आज स्वर्णिम युगः डा. पुलक
जबलपुर के प्राकृत भाषा के प्रशिक्षक डा. पुलक गोयल ने प्राकृत की विविधताओं की चर्चा करते हुए इसे सीखने की सरल विधियों की जानकारी दी। पुलक गोयल ने कहा कि पहले प्राकृत को संस्कृत के माध्यम से सिखाया जाता था लेकिन आज हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के माध्मय से प्राकृत को सरल ढंग से सिखाया जा सकता है। प्राकृत भाषा का ये स्वर्णिम युग है क्योंकि आज प्राकृत सीखने और सिखाने वालों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। इसलिए आवश्यकता है कि प्राकृत भाषा की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए विशेषज्ञ तैयार किए जाने चाहिए। इसरो के वैज्ञानिक नगेंद्र भंडारी ने प्राकृत साहित्य में वर्णित वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर हो रही खोज पर विशेष बल देते हुए कहा कि प्राकृत अध्येताओं के साथ मिलकर यदि विज्ञान कार्य करेगा तो सफलता शीघ्र मिलेगी।
शून्य का सबसे प्रथम उल्लेख प्राकृत मेः डा. अनुपम जैन
कुन्द-कुन्द ज्ञानपीठ इन्दौर के डीन डॉ अनुपम जैन ने कहा कि शून्य का सबसे प्रथम उल्लेख प्राकृत भाषा के गंथ में प्राप्त होता है। ज्योतिष, खगोल विज्ञान, गणित आदि के भी उल्लेख प्राकृत ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। गुजरात यूनिवर्सिटी अहमदाबाद के प्राकृत, पाली एवं संस्कृत विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ दीनानाथ शर्मा ने कहा कि भारतीय संस्कृति का सही ज्ञान प्राकृत ग्रंथों के अध्ययन के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता है। वैदिक शास्त्रों का अध्ययन भी प्राकृत के अध्ययन के बिना अधूरा है। भारत सरकार को प्राकृत भाषा के अध्ययन को प्रोत्साहित करना चाहिए।
तृतीय भाषा के रूप में प्राकृत को लागू करें स्कूलः एके जैन
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग के पूर्व चेयरमैन न्यायाधीश एन.के. जैन ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 31ए भाषा पर आधारित अल्पसंख्यकों को धर्म आधारित अल्पसंख्यकों पर प्राथमिकता देता है। विद्यालयों को भी प्राकृत को तृतीय भाषा के रूप में लागू करने का प्रयास करना चाहिए। लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय नई दिल्ली के प्राकृत भाषा विभाग के अध्यक्ष डॉ सुदीप कुमार जैन ने कहा कि हड़प्पा सभ्यता की मोहरों पर जो भाषा है वह प्राकृत है और इस रिसर्च को दबाकर रखा गया है। अब इसे पुनर्जीवित करने का समय आ गया है।
प्राकृत भाषा से ही जन्मी हिन्दीः प्रोफेसर सुमत जैन
मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर के प्रोफेसर डॉ सुमत कुमार जैन ने कहा कि प्राकृत भारत में जन्मी सबसे प्राचीन भाषा है। हजारों ग्रंथ प्राकृत भाषा में लिखे गए हैं और इनमें अलग-अलग प्रकार की प्राकृतों का प्रयोग किया गया है। इन्ही प्राकृतों से वर्तमान भारत की अनेक भाषाएं निर्मित हुई हैं जिनमें हिंदी प्रमुख है। केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय लखनऊ परिसर के पूर्व प्राचार्य प्रोफेसर विजय कुमार जैन ने कहा कि प्राकृत का साहित्य बहुत विशाल है। वर्तमान में इसके अध्ययन-अध्यापन की बहुत आवश्यकता है।
कोटा के प्रथम सांसद नेमिचंद्र कासनीवाल के योगदान का किया स्मरण, पौत्र संदीप को प्रदान किया प्रशस्ति-पत्र
राष्ट्रीय प्राकृत भाषा संगोष्ठी के अवसर पर अकलंक शोध संस्थान ने कोटा के प्रथम सांसद नेमिचंद्र कासनीवाल जी के अतुलनीय योगदान का स्मरण किया और उनके पौत्र संदीप कासनीवाल को प्रशस्ति-पत्र प्रदान किया। अकलंक शोध संस्थान की निदेशक डा. संस्कृति जैन ने बताया कि जयपुर में 23 मार्च 1909 को जन्मे नेमिचंद्र कासलीवाल कांग्रेस से कोटा-झालावाड़ निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा के प्रथम सदस्य (1952-57) निर्वाचित हुए। 1957 में वह पुनः लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए और 1962 तक सांसद के रूप में प्रतिनिधित्व किया। इसके पश्चात् 1962 से 1964 तक राज्यसभा सदस्य रहे। डा. संस्कृति जैन ने बताया कि नेमिचंद कासनीवाल जयपुर विधान परिषद् में 1946 से 1949 तक कांग्रेस के उपनेता रहे। इसके अलावा 1938 से 1944 तक जयपुर के नगर आयुक्त के रूप में दायित्व का सफलतापूर्वक निर्वहन किया था। सांसद के रूप में नेमिचंद्र कासनीवाल ने संयुक्त संसदीय समिति के सदस्य रहते हुए 1961 में पारित प्रत्यर्णण विधेयक में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अतिरिक्त एक नवंबर 1962 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के 17वें सत्र में नस्लीय भेदभाव एवं राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धार्मिक असहिष्णुता संबंधी तृतीय समिति के सभापति के रूप में दुनियाभर से नस्लीय भेदभाव समाप्त करने के लिए पुनरीक्षित प्रारुप के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई। नेमिचंद्र कासनीवाल की पत्नी श्रीमती ताराबाई राजश्री प्रोडक्शन्स के प्रणेता प्रसिद्ध फिल्म निर्माता व निर्देशक ताराचंद बड़जात्या की बहन थीं।
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