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03 जून 2024

"मुझे निर्वस्त्र करके 100 किलो का पुजारी, इस 11 साल की देवदासी बच्ची के ऊपर चढ़ गया था, मैं सांस तक नहीं ले पा रही थी....!"

 

 
एक देवदासी
"मुझे निर्वस्त्र करके 100 किलो का पुजारी, इस 11 साल की देवदासी बच्ची के ऊपर चढ़ गया था, मैं सांस तक नहीं ले पा रही थी....!"
- कहानी की नायिका
जिसे आप सब देवदासी के नाम से पुकारते हैं, जिसका अर्थ है “देवता की दासी”
यानी…..ईश्वर की सेवा करने वाली पत्नी होता है...! पर यह सच से कोसों दूर है।
कुछ ऐसे, जैसे~ दिन में तपते सूरज के नीचे बिना किसी आश्रय के बैठ कर आँखों को भींच कर ये उसका ये मानना कि “मैं चाँदनी की शीतलता महसूस कर रही हूँ, छलावा है।"
....................................
अब उसकी ही ज़ुबानी :
झूठ को जीते हुए मुझे 30 साल से अधिक हो गए हैं। पर मेरे जीवन की वह आखिरी बदसूरत शाम मैं आज भी नहीं भूली हूँ।
“आई!!! कोई आया है, बाबा से मिलने।"
“अरे देवा!!!”
माँ आने वाले के चरणों में लेट गई थी, फिर बोली थी-
"आपने क्यूँ कष्ट किया संदेसा भिजवा देते, हम तुरंत हाजिर हो जाते।”
तब तक बाबा भी आ गए थे। बाबा भी वही कह और कर रहे थेंं, जो माँ ने किया था।
आने वाले ने एक नज़र मुझे देखा और बोले -
”बहुत भाग्यशाली हो। बड़े महंत ने तुम्हारी दूसरी बेटी को भी ईश्वर की पत्नी बनाने का सौभाग्य तुम्हें दिया है!”
यह सुन कर मैं भी प्रसन्न हो गई। इसका मतलब दीदी से मिलूँगी! माँ और बाबा ने सारी तैयारी रात को ही कर ली जाने की।
अगली दोपहर हम मंदिर के बड़े से प्रांगण में थे। भव्य मंदिर और ऊपरी हिस्सा सोने से मढ़ा था।
माँ-बाबा मुझे झूठ बोलकर चुपके से छोडकर गए थे।
गर्भ गृह से एक विशालकाय शरीर और तोंद वाला निकला; तो सभी लोग सिर झुकाकर घुटने के बल थे। मुझे भी वैसा करने को कहा गया।
रात एक बूढ़ी के साथ रही मैं। अगली सुबह मुझे नहला कर दुल्हन जैसे कपड़े मिले पहनने को, जिसे उसी बूढ़ी अम्मा ने पहनाया जो रात मेरे पास थी। अब मुझे अच्छा लग रहा था। सब मुझे ही देख रहे थे। मेरी खूबसूरती की बलाएँ ले रहे थेेे।
मेरा विवाह कर दिया गया भगवान की मूर्ति के साथ, जिसे दुनिया पूजती है। अब मै उसकी पत्नी!! सोच कर प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती थी पूरे शरीर में।
मुझे रात दस बजे एक साफ सुथरे कमरे में। जहाँ पलंग पर सुगंधित फूल अपनी खुशबू बिखेर रहे थे। बंद कर दिया गया।
”आज ईश्वर खुद तेरा वरण करेंगे, ध्यान रखना!!! ईश्वर नाराज़ न होने पाएँ !!!”
वही बूढ़ी अम्मा ने मेरे कमरे में झाँकते हुए कहा...पर अंदर नहीं आई।
एक डेढ़ घंटे बाद दरवाजा बंद होने की आहट से मेरे नींद खुली। मैं तुरंत उठ कर बैठ गई। सामने वही बड़े शरीर वाला था। लाल आँखें और सिर्फ एक धोती पहने और भी डरा रहा था मुझे।
“ये क्यूँ आया है?” मन ने सवाल किया!
“मुझे तो भगवान के साथ सोने के लिए कहा गया था।”
सवाल बहुत थे पर जवाब एक भी नहीं था। वो सीधा मेरे पास आ कर बैठ गया, और मैं खुद में सिकुड़ गई।
मेरे चेहरे को उठा कर बोला-
“मैं प्रधान महंत हूँ इस मंदिर का। ऊपर आसमान का भगवान ये है। (कोने में रखी विष्णु की मूर्ति की तरफ इशारा करता हुआ बोला) और इस दुनिया का मैं।”
अब वह मुझे पलंग से खड़ी कर दिया और मेरी साड़ी खोल दी। मेरी नन्हीं मुट्ठियों में इतनी पकड़ नहीं थी कि मैं उसे मेरे कपड़े उतारने, नहीं.. नोंचने से रोक पाती। एक ही मिनट में मैं पूरी तरह नग्न थी और खुद को महंत कहने वाला भी।
उसनें खींच कर मुझे पलंग पर पटक दिया मेरे हाथों को उसके हाथ ने दबा रखा था। उसके भारी शरीर के नीचे मैं दब गई थी।
मेरे मुँह के बहुत पास आ कर बोला :
“आज मैं तेरा और ईश्वर का मिलन कराऊँगा। ईश्वर के साथ आज तेरी सुहागरात है। ये मिलन मेरे जरिए होगा। इसलिए चुपचाप मिलन होने देना। व्यवधान मत डालना।”
मैंने बिना समझे सिर हिला दिया। महंत मुस्कुराया और फिर मेरी भयंकर चीख निकली। मैं दर्द से झटपटा रही थी। साँस नहीं लौटी बहुत देर तक। दुबारा चीख निकली तो महंत ने मेरा मुँह दबा दिया।
बाहर ढोल मंजीरों की आवाजें आने लगीं। मैं एक हाथ जो छोड़ दिया था। मुँह दबाने पर, मैं उस हाथ से पूरी ताकत लगा कर उस पहाड़ को अपने ऊपर से धकेल रही थी, पर सौ से भी ऊपर का भार क्या 11 साल की लड़की के एक हाथ से हटने वाला था?
मैं दर्द से बिलबिला रही थी पर वह रुकने का नाम नहीं ले रहा था। पूरी शिद्दत से भगवान को मुझसे मिला रहा था। पर उस समय और कुछ नहीं याद था। सिर्फ दर्द, दर्द और बहुत दर्द था।
मैंने नाखून से नोंचना शुरू कर दिया था। पर उसकी खाल पर कोई असर नहीं हो रहा था। मुझे अपने जाँघों के नीचे पहले गर्म गर्म महसूस हुआ और फिर ठंडा ठंडा , वो मेरी योनि के फटने की वजह से निकला खून का फौव्वारा था।
पीड़ा जब असहनीय हो गई, मुझे मूर्छा आने लगी और कुछ देर बाद मैं पूरी तरह बेहोश हो गई।
मुझे नहीं पता वो कब तक मेरे शरीर के ऊपर रहा, कब तक ईश्वर से मेरे शरीर का मिलन कराता रहा।
चेहरे पर पानी के छींटों के साथ मेरी बेहोशी टूटी। मेरे ऊपर एक चादर थी और वही बूढ़ी अम्मा मेरे घाव को गर्म पानी से संभाल कर धो रही थीं।
”तुुुुने कल महंत को नाखूनों से नोंच लिया। समझाया था न तुझे, फिर?"
दुःख और पीड़ा की वजह से शब्द गले में ही अटक गए थे। सिर्फ इतना ही कह पाई।
“अम्मा मुझे बहुत दर्द लगा था।”
“दो दिन से ज्यादा नहीं बचा पाऊँगी तुझे।”
अम्मा बोली, “महंत को नाराज नहीं कर सकते, न तुम और न मैं।”
कह कर अम्मा मेरे सिर पर हाथ फेर कर चली गई। फिर ये चलता रहा। बाद में अन्य तमाम लोग भी, उनसे पुजारी के द्वारा कीमत वसूलने के बाद, मुझे भोगने लगे।
आज भी उस पहली रात को, भगवान से सुहागरात को सोचकर शरीर के रोंये खड़े हो जाते हैं; दर्द और डर से।
मेरी आँखें इस बीच मेरी बहन को ढूँढती रहीं..पर वो नहीं मिली…किसी को उसका नाम भी नहीं पता था क्योंकि विवाह के समय एक नया नाम दिया जाता है और उसी नाम से सब बुलाते है!
फिर, इसके बाद मैं जब भी किसी नई लड़की को देखती मंदिर प्रांगण में … तो मैं मेरी उस रात के दर्द से सिहर जाती थी….डर और दहशत की वजह से सो नहीं पाती थी।
उनके दबाव में मैंने इसी बीच नृत्य सीखा….और भगवान की मूर्ति के समक्ष खूब झूम झूम कर नृत्य करती….साल में एक बार माँ बाबा मिलने आते….क्या कहती उनसे…वे स्वयं भी मुझे अब भगवान की पत्नी के रूप में देखते थे।
मैंने भी अपनी नियति से समझौता कर लिया था।
हमारे गुजारे के लिए मंदिर में आए दान में हिस्सा नहीं लगता था हमारा। नृत्य करके ही कुछ रुपए पा जाती हैं मेरी जैसी तमाम देवदासियाँ…जिसमें हमें अपने लिए और अपने छोडे हुए परिवार का भी भरण पोषण करना पड़ता है।
मेरे बाद कई लड़कियों आईं….एक के माँ बाप अच्छा कमा लेते थे पर भाई अक्सर बीमार रहता था इसलिए पुजारी के कहने पर लड़की को मंदिर को दान कर दिया गया ताकि बहन भगवान के सीधे संपर्क में रहे और उसका भाई स्वस्थ हो जाए….
एक और लड़की का चेहरा नहीं भूलता….उसकी बड़ी और डरी हुई आँखों का ख़ौफ मुझे आज भी दिखाई दे जाता है मैं जब जब अतीत के पन्ने पलटती हूँ।
जिस शाम उसका और महंत के जरिए भगवान से मिलन होना था …बस तभी पहली और आखिरी बार देखा था….फिर कभी नज़र नहीं आई वो। बहुत दिनों बाद मुझे उसी बूढ़ी अम्मा ने बताया था (किसी को न बताने की शर्त पर) कि उस रात महंत को उसका ईश्वर से मिलन कराने के बाद नींद आ गई थी तो वह उसके ऊपर ही सो गए थे….और दम घुट जाने से वह मर गई थी।
सुन कर दो दिन एक निवाला नहीं उतरा हलक से….लगा शायद मुझे भी मर जाना चाहिए था उस दिन तो रोज रोज मरना नहीं पड़ता।
हमें पढ़ने की इजाजत नहीं है… हमें सिर्फ अच्छे से अच्छा नृत्य करना होता था और रात में महंत के बाद बाकी पंडों और पुजारियों और बाहरी ग्राहकों की हवस को भगवान के नाम पर शांत करना होता था।
हमें समय समय पर गर्भ निरोध की गोलियाँ दी जाती है खाने के लिए ताकि हमारा खूबसूरत शरीर बदसूरत ना हो जाए। फिर भी, कभी कभी किसी को बच्चा रुक ही जाता था ऐसे में यदि वह कम उम्र की होती थी तो उसका वही मंदिर के पीछे बने कमरे में जबरन गर्भपात करा दिया जाता था।
यह गर्भपात किसी दक्ष डॉक्टर के हाथों नहीं बल्कि किसी आई (दाई) के हाथ कराया जाता था…. किसी किसी के बारे में पता भी नहीं चल पाता था..
कभी 3 महीने से ऊपर का समय हो जाने पर गर्भपात न हो पाने की दशा में बच्चे को जन्म देने की इजाजत मिल जाती थी.... बच्चा यदि लड़की होती थी तो इस बात की खुशी मनाई जाती थी मंदिर में शायद उन्हें आने वाली देवदासी दिखाई देती थी उस मासूम में।
मेरी जैसी एक नहीं हज़ारों हैं। जब पुरी के प्रभू जगन्नाथ का रथ निकलता है, तो मुझ जैसीे हज़ारों की संख्या में देवदासियाँ होती हैं, जो ईश्वर के एक मंदिर से निकलकर दूसरे मंदिर जाने तक बिना रुके नृत्य करती हैं।
हम सभी के दर्द एक हैं। सभी के घाव एक जैसे हैं, पर मूक और बघिर जैसे एक दूसरे को देखती हैं बस…..!
मैं उनकी आँखों का दर्द सुन लेती हूँ और वे मेरी आँखों से छलका दर्द बिन कहे समझ लेती हैं।
यहाँ से निकलने के बाद हमारे पास न तो परिवार होता है…न ही कोई बड़ी धनराशि…और न कोई ठौर-ठिकाना जहाँ दो वक्त की रोटी और सिर छुपाने की जगह मिल जाए….
नतीजा…हम एक दलदल से निकलकर दूसरे दलदल में आ जाती हैं, कोठों पर। वहाँ हमारा उपभोग ईश्वर के नाम पर महंत और पंडे करते थे….और यहाँ हर तरह का व्यक्ति हमारा कस्टमर होता है….न वहाँ सम्मान जैसा कुछ था…न यहाँ।
मुझ जैसी वहाँ ईश्वर के नाम की वेश्याएँ थीं…यहाँ सच की वेश्याएँ हैं…. यहाँ पर 100 मे से 80 किसी समय देवदासियाँ ही थीं।
आज तमाम तरह के एनजीओ हैं पर किसी भी एन जी ओ की वजह से कोई भी लड़की इस नर्क से नहीं निकल पाई।
हजारों साल पहले धर्म के नाम पर चलाई गई ये रीति लड़कियों के शारीरिक शोषण का एक बहाना मात्र था जिसे भगवान और धर्म के नाम पर मुझ जैसियों को जबरन पहना दिया गया।
एक ऐसी बेड़ी जिसको पहनाने के बाद कभी न खोली जा सकती है और न तोड़ी जा सकती है।
कहने को देवदासी प्रथा बंद कर दी गई है और यह अब कानून के खिलाफ है! पर ये प्रथा ठीक उसी प्रकार बंद है जैसे दहेज प्रथा कानूनन जुर्म है पर सब देते हैं… सब लेते हैं।
ये प्रथा वेश्यावृति को आगे बढ़ाने का पहला चरण है… दूसरे चरण वेश्यावृति में और कोई विकल्प न होने की वजह से मेरी जैसी खुद ही चुन लेती हैं।
यहाँ जवानी को स्वाहा करने के बाद बुढ़ापा बेहद कष्टमय गुजरता है देवदासियों का….दो वक्त का भोजन तक नसीब नहीं होता….जिस मंदिर में देव की ब्याहता कहलाती थीं उसी मंदिर की सीढ़ियों में भीख माँगने को मजबूर हैं….
पेट की आग सिर्फ रोटी की भाषा समझती है….पर बुजुर्ग देवदासियाँ एड़ियाँ रगड़ कर मरने को लाचार हैं… कई बार भूख और बीमारी के चलते उन्हीं सीढ़ियों पर दम तोड़ देती हैं।
और हाँ….
एक बात बतानी रह गई….वेश्याओं के बाज़ार में मुझे मेरी बड़ी बहन भी मिली….बहुत बीमार थी वो…पता चलने पर मैं लगभग भागती हुई गई थी उसकी खोली की तरफ…पर बहुत भीड़ थी उसके दरवाजे…”
लक्ष्मी दीदी”.. कहते हुए मैं अंदर गई जो उसका निर्जीव अकड़ा हुआ शरीर पड़ा था
मर तो बहुत पहले ही गई थी वह भी बस साँसों ने आज साथ छोड़ा था।
...........
छठीं सदी में शुरू यह प्रथा आज 21वीं सदी में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, उड़ीसा में खूब फल-फूल रही है.
अशम्मा जैसी 500 साहसी महिलाओं ने हैदराबाद के कोर्ट में इस बात के लिए रिट करी है, कि ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चों की शिक्षा का इंतजाम किया जाए और रहने के लिए हॉस्टल उपलब्ध कराया जाए।
अकेले महबूबनगर में ऐसे बच्चों की संख्या 5000 से 10000 के बीच है…. बच्चों का डीएनए टेस्ट करा कर पिता को खोजा जाए और उसकी संपत्ति में इन बच्चों को हिस्सा दिया जाए……..।
पर जब तक कोर्ट का फैसला आएगा तब तक न जाने कितनी अशम्मा और न जाने कितनी मेरी जैसी इस दलदल में फँसी रहेंगी और घुट-घुट कर जीने के लिए मजबूर होती रहेंगी!!
पुष्पा गुप्ता

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