आपका-अख्तर खान

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18 दिसंबर 2020

*जाने क्यूँ,* *अब शर्म से,

*जाने क्यूँ,*
*अब शर्म से,*
*चेहरे गुलाब नहीं होते।*
*जाने क्यूँ*,
*अब मस्त मौला *मिजाज नहीं होते।*
*पहले बता दिया करते थे*,
*दिल की बातें*,
*जाने क्यूँ,अब चेहरे,*
*खुली किताब नहीं होते।*
*सुना है,बिन कहे,*
*दिल की बात, समझ लेते थे*
*गले लगते ही,*
*दोस्त,*
*हालात समझ लेते थे।*
*तब ना फेस बुक था,*
*ना स्मार्ट फ़ोन*,
*ना ट्विटर अकाउंट,*
*एक चिट्टी से ही,*
*दिलों के जज्बात, समझ लेते थे।*
*सोचता हूँ,*
*हम कहाँ से कहाँ*
*आ गए,*
*व्यावहारिकता सोचते सोचते,*
*भावनाओं को खा गये।*
*अब भाई भाई से*,
*समस्या का *समाधान,कहाँ पूछता है,*
*अब बेटा बाप से,*
*उलझनों का निदान,*
*कहाँ पूछता है*
*बेटी नहीं पूछती,*
*माँ से गृहस्थी के सलीके,*
*अब कौन गुरु के*,
*चरणों में बैठकर*,
*ज्ञान की परिभाषा सीखता है।*
*परियों की बातें,*
*अब किसे भाती है,*
*अपनों की याद*,
*अब किसे रुलाती है,*
*अब कौन,*
*गरीब को सखा बताता है,*
*अब कहाँ,*
*कृष्ण सुदामा को गले लगाता है*
*इंसान जाने कहाँ खो गये हैं!....

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