आपका-अख्तर खान

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07 दिसंबर 2020

तुम्हें यह हठ तुम्हारीतुम्हें यह हठ तुम्हारी

 

तुम ख़ता करके भी
खामोश रहो
मैं बेगुनाही की भी
माँग लूँ माफ़ी
कुछ अजीब नहीं लगती
तुम्हें यह जिद तुम्हारी
तुम शर्तों के घेरे में
कैद कर दो मुझे
मैं बेशर्त मगर
मुहब्बत करूँ तुमसे
कुछ अज़ीब नहीं लगती
तुम्हें यह जरूरत तुम्हारी
तुम नज़रअंदाज़ कर दो
मेरी हर ख़्वाहिश
मैं पूरी करती रहूँ मगर
हर जिद भी तुम्हारी
कुछ अज़ीब नहीं लगती
तुम्हें यह नीयत तुम्हारी
तुम कोशिश भी न करो
मुझे मनाने की
मैं रूठ के भी मगर
मनाती रहूँ तुम्हें ही
कुछ अजीब नहीं लगती
तुम्हें यह हठ तुम्हारी
तुम बढते रहो
नये रास्तों पे
मैं ठहरी रहूं
मोड़ पर उसी
कुछ अजीब नहीं लगती
तुम्हें यह चाल तुम्हारी
तुम नित बदलो
रंग चेहरा अपना
मैं चाहती रहूँ तुम्हें
एक जैसा ही
कुछ अजीब नहीं लगती
तुम्हें यह उम्मीद तुम्हारी
तुम न पढ़ो न समझो
सवाल मेरे
मैं तुम्हारी ख़ामोशी में
ढूँढती रहूँ जवाब मेरे
कुछ अज़ीब नहीं लगती
तुम्हें यह आदत तुम्हारी

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