ग़ज़ल-- आँख ग़ायब हैं कान गायब हैं
ग़ज़ल
आँख ग़ायब हैं, कान ग़ायब हैं
शोर तो है, बयान ग़ायब हैं
कोई क़ातिल को कैसे पहचाने
उँगलियों के निशान ग़ायब हैं
हम तो कब से खड़े हैं मन्दिर में
देवताओं के ध्यान ग़ायब हैं
सिर्फ़ दीवार, सिर्फ़ दीवारें
शहर से अब मकान ग़ायब हैं
पाँव से यह ज़मीन क्याखिसकी
सर से सब आसमान ग़ायब हैं
मेज पर रायफल है, चाकू है
मेज से फूलदान ग़ायब हैं
खींच ली हैं सभी ने तलवारें
और हाथों से म्यान ग़ायब हैं
आजकल इश्क़ की कहानी से
इश्क़ के इम्तहान ग़ायब हैं
ऐ 'कुँअर' क्या हुआ परिंदों को
भर के अपनी उड़ान ग़ायब हैं
-डॉ.कुँअर बेचैन-
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