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24 मार्च 2020

यदि अल्लाह, लोगों को तुरन्त बुराई का (बदला) दे देता


11 ﴿ और यदि अल्लाह, लोगों को तुरन्त बुराई का (बदला) दे देता, जैसे वे तुरन्त (सांसारिक) भलाई चाहते हैं, तो उनका समय कभी पूरा हो चुका होता! अतः जो (मरने के पश्चात्) हमसे मिलने की आशा नहीं रखते, हम उन्हें, उनके कुकर्मों में बहकते हुए[1] छोड़ देंगे।
1. आयत का अर्थ यह है कि अल्लाह के दुष्कर्मों का दण्ड देने का नियम यह नहीं है कि तुरन्त संसार ही में उस का कुफल दे दिया जाये। परन्तु दुष्कर्मी का यहाँ अवसर दिया जाता है, अन्यथा उन का समय कभी का पूरा हो चुका होता।
12 ﴿ और जब मानव को कोई दुःख पहुँचता है, तो हमें लेटे, बैठे या खड़े होकर पुकारता है। फिर जब हम उसका दुःख दूर कर देते हैं, तो ऐसे चल देता है, जैसे कभी हमें किसी दुःख के समय पुकारा ही न हो! इसी प्रकार, उल्लंघनकारियों के लिए उनके करतूत शोभित बना दिये गये हैं।
13 ﴿ और तुमसे पहले, हम कई जातियों को ध्वस्त कर चुके हैं; जब उन्होंने अत्याचार किये और उनके पास उनके रसूल खुले तर्क (प्रमाण) लाये, परन्तु वे ऐसे नहीं थे कि ईमान लाते, इसी प्रकार, हम अपराधियों को बदला देते हैं।
14 ﴿ फिर हमने धरती में उनके पश्चात्, तुम्हें उनका स्थान दिया, ताकि हम देखें कि तुम्हारे कर्म कैसे होते हैं?
15 ﴿ और (हे नबी!) जब हमारी खुली आयतें उन्हें सुनाई जाती हैं, तो जो हमसे मिलने की आशा नहीं रखते, वे कहते हैं कि इसके सिवा कोई दूसरा क़ुर्आन लाओ या इसमें परिवर्तन कर दो। उनसे कह दो कि मेरे बस में ये नहीं है कि अपनी ओर से इसमें परिवर्तन कर दूँ। मैं तो बस उस प्रकाशना का अनुयायी हूँ, जो मेरी ओर की जाती है। मैं यदि अपने पालनहार की अवज्ञा करूँ, तो मैं एक घोर दिन की यातना से डरता हूँ।
16 ﴿ आप कह दें: यदि अल्लाह चाहता, तो मैं क़ुर्आन तुम्हें सुनाता ही नहीं और न वह तुम्हें इससे सूचित करता। फिर मैं इससे पहले तुम्हारे बीच एक आयु व्यतीत कर चुका हूँ। तो क्या तुम समझ बूझ नहीं रखते हो[1]?
1. आयत का भावार्थ यह है कि यदि तुम एक इसी बात पर विचार करो कि मैं तुम्हारे लिये कोई अपरिचित अज्ञात नहीं हूँ। मैं तुम्ही में से हूँ। यहीं मक्का में पैदा हुआ, और चालीस वर्ष की आयु तुम्हारे बीच व्यतीत की। मेरा पूरा जीवन चरित्र तुम्हारे सामने है, इस अवधि में तुमने सत्य और अमानत के विरुध्द मुझ में कोई बात नहीं देखी तो अब चालीस वर्ष के पश्चात् यह कैसे हो सकता है कि अल्लाह पर यह मिथ्या आरोप लगा दूँ कि उस ने यह क़ुर्आन मुझ पर उतारा है? मेरा पवित्र जीवन स्वयं इस बात का प्रमाण है कि यह क़ुर्आन अल्लाह की वाणी है। और मैं उस का नबी हूँ। और उसी की अनुमति से यह क़ुर्आन तुम्हें सुना रहा हूँ।
17 ﴿ फिर उससे अधिक अत्याचारी कौन होगा, जो अल्लाह पर मिथ्या आरोप लगाये अथवा उसकी आयतों को मिथ्या कहे? वास्तव में, ऐसे अपराधी सफल नहीं होते।
18 ﴿ और वे अल्लाह के सिवा, उनकी इबादत (वंदना) करते हैं, जो न तो उन्हें कोई हानि पहुँचा सकते हैं और न कोई लाभ और कहते हैं ये अल्लाह के यहाँ, हमारे अभिस्तावक (सिफारिशी) हैं, आप कहियेः क्या तुम अल्लाह को ऐसी बात की सूचना दे रहे हो, जिसके होने को न वह आकाशों में जानता है और न धरती में? वह पवित्र और उच्च है, उस शिर्क (मिश्रणवाद) से, जो वे कर रहे हैं।
19 ﴿ लोग एक ही धर्म (इस्लाम) पर थे, फिर उन्होंने विभेद[1] किया और यदि आपके पालनहार की ओर से, पहले ही से एक बात निश्चित न[2] होती, तो उनके बीच उसका (संसार ही में) निर्णय कर दिया जाता, जिसमें वे विभेद कर रहे हैं।
1. अतः कुछ शिर्क करने और देवी देवताओं को पूजने लगे। (इब्ने कसीर) 2. कि संसार में लोगों को कर्म करने का अवसर दिया जाये।
20 ﴿ और वे ये भी कहते हैं कि आपपर कोई आयत (चमत्कार) क्यों नहीं उतारा गया[1]? आप कह दें कि परोक्ष की बातें तो अल्लाह के अधिकार में हैं। अतः, तुम प्रतीक्षा करो, मैंभी तुम्हारे साथ प्रतीक्षा कर रहा हूँ[2]
1. जैसे कि सफ़ा पर्वत सोने का हो जाता। अथवा मक्का के पर्वतों के स्थान पर अद्यान हो जाते। (इब्ने कसीर) 2. अर्थात अल्लाह के आदेश की।

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