रसूल जो लोग कुफ़्र की तरफ़ लपक के चले जाते हैं तुम उनका ग़म न खाओ उनमें
बाज़ तो ऐसे हैं कि अपने मुँह से बे तकल्लुफ़ कह देते हैं कि हम ईमान लाए
हालाँकि उनके दिल बेईमान हैं और बाज़ यहूदी ऐसे हैं कि (जासूसी की ग़रज़
से) झूठी बातें बहुत (शौक से) सुनते हैं ताकि कुफ़्फ़ार के दूसरे गिरोह को
जो (अभी तक) तुम्हारे पास नहीं आए हैं सुनाए ये लोग (तौरैत के) अल्फ़ाज़ की
उनके असली मायने (मालूम होने) के बाद भी तहरीफ़ करते हैं (और लोगों से)
कहते हैं कि (ये तौरैत का हुक्म है) अगर मोहम्मद (स०) की तरफ़ से (भी)
तुम्हें यही हुक्म दिया जाय तो उसे मान लेना और अगर यह हुक्म तुमको न दिया
जाए तो उससे अलग ही रहना और (ऐ रसूल) जिसको ख़ुदा ख़राब करना चाहता है तो
उसके वास्ते ख़ुदा से तुम्हारा कुछ ज़ोर नहीं चल सकता यह लोग तो वही हैं
जिनके दिलों को ख़ुदा ने (गुनाहों से) पाक करने का इरादा ही नहीं किया
(बल्कि) उनके लिए तो दुनिया में भी रूसवाई है और आख़ेरत में भी (उनके लिए)
बड़ा (भारी) अज़ाब होगा (41)
ये (कम्बख़्त) झूठी बातों को बड़े शौक़ से सुनने वाले और बड़े ही हरामख़ोर हैं तो (ऐ रसूल (स०)) अगर ये लोग तुम्हारे पास (कोई मामला लेकर) आए तो तुमको इख़्तेयार है ख़्वाह उनके दरम्यिान फै़सला कर दो या उनसे किनाराकशी करो और अगर तुम किनाराकश रहोगे तो (कुछ ख़्याल न करो) ये लोग तुम्हारा हरगिज़ कुछ बिगाड़ नहीं सकते और अगर उनमें फै़सला करो तो इन्साफ़ से फै़सला करो क्योंकि ख़ुदा इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता है (42)
और जब ख़ुद उनके पास तौरेत है और उसमें ख़ुदा का हुक्म (मौजूद) है तो फिर तुम्हारे पास फैसला कराने को क्यों आते हैं और (लुत्फ़ तो ये है कि) इसके बाद फिर (तुम्हारे हुक्म से) फिर जाते हैं ओर सच तो यह है कि यह लोग ईमानदार ही नहीं हैं (43)
बेशक हम ने तौरेत नाजि़ल की जिसमें (लोगों की) हिदायत और नूर (ईमान) है उसी के मुताबिक़ ख़ुदा के फ़रमाबरदार बन्दे (अम्बियाए बनी इसराईल) यहूदियों को हुक्म देते रहे और अल्लाह वाले और उलेमाए (यहूद) भी किताबे ख़ुदा से (हुक्म देते थे) जिसके वह मुहाफि़ज़ बनाए गए थे और वह उसके गवाह भी थे बस (ऐ मुसलमानों) तुम लोगों से (ज़रा भी) न डरो (बल्कि) मुझ ही से डरो और मेरी आयतों के बदले में (दुनिया की दौलत जो दर हक़ीक़त बहुत थोड़ी क़ीमत है) न लो और (समझ लो कि) जो ख़्स ख़ुदा की नाजि़ल की हुयी (किताब) के मुताबिक़ हुक्म न दे तो ऐसे ही लोग काफि़र हैं (44)
और हम ने तौरेत में यहूदियों पर यह हुक्म फर्ज़ कर दिया था कि जान के बदले जान और आँख के बदले आँख और नाक के बदले नाक और कान के बदले कान और दाँत के बदले दाँत और जख़्म के बदले (वैसा ही) बराबर का बदला (जख़्म) है फिर जो (मज़लूम ज़ालिम की) ख़ता माफ़ कर दे तो ये उसके गुनाहों का कफ़्फ़ारा हो जाएगा और जो शख़्स ख़ुदा की नाजि़ल की हुयी (किताब) के मुवाफि़क़ हुक्म न दे तो ऐसे ही लोग ज़ालिम हैं (45)
और हम ने उन्हीं पैग़म्बरों के क़दम ब क़दम मरियम के बेटे ईसा (अ०) को चलाया और वह इस किताब तौरैत की भी तस्दीक़ करते थे जो उनके सामने (पहले से) मौजूद थी और हमने उनको इन्जील (भी) अता की जिसमें (लोगों के लिए हर तरह की) हिदायत थी और नूर (ईमान) और वह इस किताब तौरेत की जो वक़्ते नुज़ूले इन्जील (पहले से) मौजूद थी तसदीक़ करने वाली और परहेज़गारों की हिदायत व नसीहत थी (46)
और इन्जील वालों (नसारा) को जो कुछ ख़ुदा ने (उसमें) नाजि़ल किया है उसके मुताबिक़ हुक्म करना चाहिए और जो शख़्स ख़ुदा की नाजि़ल की हुयी (किताब के मुआफि़क) हुक्म न दे तो ऐसे ही लोग बदकार हैं (47)
और (ऐ रसूल) हमने तुम पर भी बरहक़ किताब नाजि़ल की जो किताब (उसके पहले से) उसके वक़्त में मौजूद है उसकी तसदीक़ करती है और उसकी निगेहबान (भी) है जो कुछ तुम पर ख़ुदा ने नाजि़ल किया है उसी के मुताबिक़ तुम भी हुक्म दो और जो हक़ बात ख़ुदा की तरफ़ से आ चुकी है उससे कतरा के उन लोगों की ख़्वाहिशे नफ़सियानी की पैरवी न करो और हमने तुम में हर एक के वास्ते (हस्बे मसलेहते वक़्त) एक एक शरीयत और ख़ास तरीक़े पर मुक़र्रर कर दिया और अगर ख़ुदा चाहता तो तुम सब के सब को एक ही (शरीयत की) उम्मत बना देता मगर (मुख़तलिफ़ शरीयतों से) ख़ुदा का मतलब यह था कि जो कुछ तुम्हें दिया है उसमें तुम्हारा इम्तेहान करे बस तुम नेकी में लपक कर आगे बढ़ जाओ और (यक़ीन जानो कि) तुम सब को ख़ुदा ही की तरफ़ लौट कर जाना है (48)
तब (उस वक़्त) जिन बातों में तुम इख़्तेलाफ़ करते वह तुम्हें बता देगा और (ऐ रसूल) हम फिर कहते हैं कि जो एहकाम ख़ुदा नाजि़ल किए हैं तुम उसके मुताबिक़ फै़सला करो और उनकी (बेजा) ख़्वाहिशे नफ़सियानी की पैरवी न करो (बल्कि) तुम उनसे बचे रहो (ऐसा न हो) कि किसी हुक्म से जो ख़ुदा ने तुम पर नाजि़ल किया है तुमको ये लोग भटका दें फिर अगर ये लोग तुम्हारे हुक्म से मुँह मोड़ें तो समझ लो कि (गोया) ख़ुदा ही की मरज़ी है कि उनके बाज़ गुनाहों की वजह से उन्हें मुसीबत में फॅसा दे और इसमें तो शक ही नहीं कि बहुतेरे लोग बदचलन हैं (49)
क्या ये लोग (ज़मानाए) जाहिलीयत के हुक्म की (तुमसे भी) तमन्ना रखते हैं हालाँकि यक़ीन करने वाले लोगों के वास्ते हुक्मे ख़ुदा से बेहतर कौन होगा (50)
ये (कम्बख़्त) झूठी बातों को बड़े शौक़ से सुनने वाले और बड़े ही हरामख़ोर हैं तो (ऐ रसूल (स०)) अगर ये लोग तुम्हारे पास (कोई मामला लेकर) आए तो तुमको इख़्तेयार है ख़्वाह उनके दरम्यिान फै़सला कर दो या उनसे किनाराकशी करो और अगर तुम किनाराकश रहोगे तो (कुछ ख़्याल न करो) ये लोग तुम्हारा हरगिज़ कुछ बिगाड़ नहीं सकते और अगर उनमें फै़सला करो तो इन्साफ़ से फै़सला करो क्योंकि ख़ुदा इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता है (42)
और जब ख़ुद उनके पास तौरेत है और उसमें ख़ुदा का हुक्म (मौजूद) है तो फिर तुम्हारे पास फैसला कराने को क्यों आते हैं और (लुत्फ़ तो ये है कि) इसके बाद फिर (तुम्हारे हुक्म से) फिर जाते हैं ओर सच तो यह है कि यह लोग ईमानदार ही नहीं हैं (43)
बेशक हम ने तौरेत नाजि़ल की जिसमें (लोगों की) हिदायत और नूर (ईमान) है उसी के मुताबिक़ ख़ुदा के फ़रमाबरदार बन्दे (अम्बियाए बनी इसराईल) यहूदियों को हुक्म देते रहे और अल्लाह वाले और उलेमाए (यहूद) भी किताबे ख़ुदा से (हुक्म देते थे) जिसके वह मुहाफि़ज़ बनाए गए थे और वह उसके गवाह भी थे बस (ऐ मुसलमानों) तुम लोगों से (ज़रा भी) न डरो (बल्कि) मुझ ही से डरो और मेरी आयतों के बदले में (दुनिया की दौलत जो दर हक़ीक़त बहुत थोड़ी क़ीमत है) न लो और (समझ लो कि) जो ख़्स ख़ुदा की नाजि़ल की हुयी (किताब) के मुताबिक़ हुक्म न दे तो ऐसे ही लोग काफि़र हैं (44)
और हम ने तौरेत में यहूदियों पर यह हुक्म फर्ज़ कर दिया था कि जान के बदले जान और आँख के बदले आँख और नाक के बदले नाक और कान के बदले कान और दाँत के बदले दाँत और जख़्म के बदले (वैसा ही) बराबर का बदला (जख़्म) है फिर जो (मज़लूम ज़ालिम की) ख़ता माफ़ कर दे तो ये उसके गुनाहों का कफ़्फ़ारा हो जाएगा और जो शख़्स ख़ुदा की नाजि़ल की हुयी (किताब) के मुवाफि़क़ हुक्म न दे तो ऐसे ही लोग ज़ालिम हैं (45)
और हम ने उन्हीं पैग़म्बरों के क़दम ब क़दम मरियम के बेटे ईसा (अ०) को चलाया और वह इस किताब तौरैत की भी तस्दीक़ करते थे जो उनके सामने (पहले से) मौजूद थी और हमने उनको इन्जील (भी) अता की जिसमें (लोगों के लिए हर तरह की) हिदायत थी और नूर (ईमान) और वह इस किताब तौरेत की जो वक़्ते नुज़ूले इन्जील (पहले से) मौजूद थी तसदीक़ करने वाली और परहेज़गारों की हिदायत व नसीहत थी (46)
और इन्जील वालों (नसारा) को जो कुछ ख़ुदा ने (उसमें) नाजि़ल किया है उसके मुताबिक़ हुक्म करना चाहिए और जो शख़्स ख़ुदा की नाजि़ल की हुयी (किताब के मुआफि़क) हुक्म न दे तो ऐसे ही लोग बदकार हैं (47)
और (ऐ रसूल) हमने तुम पर भी बरहक़ किताब नाजि़ल की जो किताब (उसके पहले से) उसके वक़्त में मौजूद है उसकी तसदीक़ करती है और उसकी निगेहबान (भी) है जो कुछ तुम पर ख़ुदा ने नाजि़ल किया है उसी के मुताबिक़ तुम भी हुक्म दो और जो हक़ बात ख़ुदा की तरफ़ से आ चुकी है उससे कतरा के उन लोगों की ख़्वाहिशे नफ़सियानी की पैरवी न करो और हमने तुम में हर एक के वास्ते (हस्बे मसलेहते वक़्त) एक एक शरीयत और ख़ास तरीक़े पर मुक़र्रर कर दिया और अगर ख़ुदा चाहता तो तुम सब के सब को एक ही (शरीयत की) उम्मत बना देता मगर (मुख़तलिफ़ शरीयतों से) ख़ुदा का मतलब यह था कि जो कुछ तुम्हें दिया है उसमें तुम्हारा इम्तेहान करे बस तुम नेकी में लपक कर आगे बढ़ जाओ और (यक़ीन जानो कि) तुम सब को ख़ुदा ही की तरफ़ लौट कर जाना है (48)
तब (उस वक़्त) जिन बातों में तुम इख़्तेलाफ़ करते वह तुम्हें बता देगा और (ऐ रसूल) हम फिर कहते हैं कि जो एहकाम ख़ुदा नाजि़ल किए हैं तुम उसके मुताबिक़ फै़सला करो और उनकी (बेजा) ख़्वाहिशे नफ़सियानी की पैरवी न करो (बल्कि) तुम उनसे बचे रहो (ऐसा न हो) कि किसी हुक्म से जो ख़ुदा ने तुम पर नाजि़ल किया है तुमको ये लोग भटका दें फिर अगर ये लोग तुम्हारे हुक्म से मुँह मोड़ें तो समझ लो कि (गोया) ख़ुदा ही की मरज़ी है कि उनके बाज़ गुनाहों की वजह से उन्हें मुसीबत में फॅसा दे और इसमें तो शक ही नहीं कि बहुतेरे लोग बदचलन हैं (49)
क्या ये लोग (ज़मानाए) जाहिलीयत के हुक्म की (तुमसे भी) तमन्ना रखते हैं हालाँकि यक़ीन करने वाले लोगों के वास्ते हुक्मे ख़ुदा से बेहतर कौन होगा (50)
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