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30 जुलाई 2018

इबादत करने वालों के लिए (एहकामें खु़दा की) तबलीग़ है

लोगों ने कहा तो अच्छा उसको सब लोगों के सामने (गिरफ़्तार करके) ले आओ ताकि वह (जो कुछ कहें) लोग उसके गवाह रहें (61)
(ग़रज़ इबराहीम आए) और लोगों ने उनसे पूछा कि क्यों इबराहीम क्या तुमने माबूदों के साथ ये हरकत की है (62)
इबराहीम ने कहा बल्कि ये हरकत इन बुतों (खु़दाओं) के बड़े (खु़दा) ने की है तो अगर ये बुत बोल सकते हों तो उनही से पूछ के देखो (63)
इस पर उन लोगों ने अपने जी में सोचा तो (एक दूसरे से) कहने लगे बेशक तुम ही लोग खु़द बर सरे नाहक़़ हो (64)
फिर उन लोगों के सर इसी गुमराही में झुका दिए गए (और तो कुछ बन न पड़ा मगर ये बोले) तुमको तो अच्छी तरह मालूम है कि ये बुत बोला नहीं करते (65)
(फिर इनसे क्या पूछे) इबराहीम ने कहा तो क्या तुम लोग खु़दा को छोड़कर ऐसी चीज़ों की परसतिश करते हो जो न तुम्हें कुछ नफा ही पहुँचा सकती है और न तुम्हारा कुछ नुक़सान ही कर सकती है (66)
तुफ़ है तुम पर उस चीज़ पर जिसे तुम खु़दा के सिवा पूजते हो तो क्या तुम इतना भी नहीं समझते (67)
(आखि़र) वह लोग (बाहम) कहने लगे कि अगर तुम कुछ कर सकते हो तो इब्राहीम को आग में जला दो और अपने खु़दाओं की मदद करो (68)
(ग़रज़) उन लोगों ने इबराहीम को आग में डाल दिया तो हमने हुक्म दिया ऐ आग तू इबराहीम पर बिल्कुल ठन्डी और सलामती का बाइस हो जा (69)
(कि उनको कोई तकलीफ़ न पहुँचे) और उन लोगों ने इबराहीम के साथ चालबाज़ी करनी चाही थी तो हमने इन सब को नाकाम कर दिया (70)
और हम ने ही इबराहीम और लूत को (सरकशों से) सही व सालिम निकालकर इस सर ज़मीन (शाम बैतुलमुक़द्दस) में जा पहुँचाया जिसमें हमने सारे जहाँन के लिए तरह-तरह की बरकत अता की थी (71)
और हमने इबराहीम को इनाम में इसहाक़ (जैसा बैटा) और याकू़ब (जैसा पोता) इनायत फरमाया हमने सबको नेक बख़्त बनाया (72)
और उन सबको (लोगों का) पेशवा बनाया कि हमारे हुक्म से (उनकी) हिदायत करते थे और हमने उनके पास नेक काम करने और नमाज़ पढ़ने और ज़कात देने की “वही” भेजी थी और ये सब के सब हमारी ही इबादत करते थे (73)
और लूत को भी हम ही ने फ़हमे सलीम और नबूवत अता की और हम ही ने उस बस्ती से जहाँ के लोग बदकारियाँ करते थे नजात दी इसमें शक नहीं कि वह लोग बड़े बदकार आदमी थे (74)
और हमने लूत को अपनी रहमत में दाखि़ल कर लिया इसमें शक नहीं कि वह नेकोंकार बन्दों में से थे (75)
और (ऐ रसूल लूत से भी) पहले (हमने) नूह को नबूवत पर फ़ायज़ किया जब उन्होंने (हमको) आवाज़ दी तो हमने उनकी (दुआ) सुन ली फिर उनको और उनके साथियों को (तूफ़ान की) बड़ी सख़्त मुसीबत से नजात दी (76)
और जिन लोगों ने हमारी आयतों को झुठलाया था उनके मुक़ाबले में उनकी मदद की बेशक ये लोग (भी) बहुत बुऱे लोग थे तो हमने उन सबको डुबा मारा (77)
और (ऐ रसूल इनको) दाऊद और सुलेमान का (वाक़्या याद दिलाओ) जब ये दोनों एक खेती के बारे में जिसमें रात के वक़्त कुछ लोगों की बकरियाँ (घुसकर) चर गई थी फैसला करने बैठे और हम उन लोगों के कि़स्से को देख रहे थे (कि बाहम इक़तेलाफ़ हुआ) (78)
तो हमने सुलेमान को (इसका सही फ़ैसला समझा दिया) और (यूँ तो) सबको हम ही ने फहमे सलीम और इल्म अता किया और हम ही ने पहाड़ों को दाऊद का ताबेए कर दिया था था कि उनके साथ (खु़दा की) तस्बीह किया करते थे और परिन्दों को (भी ताबेए कर दिया था) और हम ही (ये अजाऐब) किया करते थे (79)
और हम ही ने उनको तुम्हारी जंगी पोशिश (जि़राह) का बनाना सिखा दिया ताकि तुम्हें (एक दूसरे के) वार से बचाए तो क्या तुम (अब भी) उसके शुक्रगुज़ार न बनोगे (80)
और (हम ही ने) बड़े ज़ोरों की हवा को सुलेमान का (ताबेए कर दिया था) कि वह उनके हुक्म से इस सरज़मीन (बैतुलमुक़द्दस) की तरफ चला करती थी जिसमें हमने तरह-तरह की बरकतें अता की थी और हम तो हर चीज़ से खू़ब वाकि़फ़ थे (और) है (81)
और जिन्नात में से जो लोग (समन्दर में) ग़ोता लगाकर (जवाहरात निकालने वाले) थे और उसके अलावा और काम भी करते थे (सुलेमान का ताबेए कर दिया था) और हम ही उनके निगेहबान थे (82)
(कि भाग न जाएँ) और (ऐ रसूल) अय्यूब (का कि़स्सा याद करो) जब उन्होंने अपने परवरदिगार से दुआ की कि (ख़ुदा वन्द) बीमारी तो मेरे पीछे लग गई है और तू तो सब रहम करने वालो से (बढ़ कर है मुझ पर तरस खा) (83)
तो हमने उनकी दुआ कु़बूल की तो हमने उनका जो कुछ दर्द दुख था रफ़ा कर दिया और उन्हें उनके लड़के बाले बल्कि उनके साथ उतनी ही और भी महज़ अपनी ख़ास मेहरबानी से और इबादत करने वालों की इबरत के वास्ते अता किए (84)
और (ऐ रसूल) इसमाईल और इदरीस और जु़लकिफ़ली (के वाक़यात से याद करो) ये सब साबिर बन्दे थे (85)
और हमने उन सबको अपनी (ख़ास) रहमत में दाखि़ल कर लिया बेशक ये लोग नेक बन्दे थे (86)
और ज़वालऐ नून (यूनुस को याद करो) जबकि गुस्से में आकर चलते हुए और ये ख़्याल न किया कि हम उन पर रोज़ी तंग न करेंगे (तो हमने उन्हें मछली के पेट में पहुँचा दिया) तो (घटाटोप) अँधेरे में (घबराकर) चिल्ला उठा कि (परवरदिगार) तेरे सिवा कोई माबूद नहीं तू (हर ऐब से) पाक व पाकीज़ा है बेशक मैं कुसूरवार हूँ (87)
तो हमने उनकी दुआ कु़बूल की और उन्हें रंज से नजात दी और हम तो ईमानवालों को यूँ ही नजात दिया करते हैं (88)
और ज़करिया (को याद करो) जब उन्होंने (मायूसी की हालत में) अपने परवरदिगार से दुआ की ऐ मेरे पालने वाले मुझे तन्हा (बे औलाद) न छोड़ और तू तो सब वारिसों से बेहतर है (89)
तो हमने उनकी दुआ सुन ली और उन्हें यहया सा बेटा अता किया और हमने उनके लिए उनकी बीवी को अच्छी बना दिया इसमें शक नहीं कि ये सब नेक कामों में जल्दी करते थे और हमको बड़ी रग़बत और ख़ौफ के साथ पुकारा करते थे और हमारे आगे गिड़गिड़ाया करते थे (90)
और (ऐ रसूल) उस बीबी को (याद करो) जिसने अपनी अज़मत की हिफाज़त की तो हमने उन (के पेट) में अपनी तरफ से रूह फूँक दी और उनको और उनके बेटे (ईसा) को सारे जहाँन के वास्ते (अपनी क़ुदरत की) निशानी बनाया (91)
बेशक ये तुम्हारा दीन (इस्लाम) एक ही दीन है और मैं तुम्हारा परवरदिगार हूँ तो मेरी ही इबादत करो (92)
और लोगों ने बाहम (इक़तेलाफ़ करके) अपने दीन को टुकड़े -टुकड़े कर डाला (हालाँकि) वो सब के सब हिरफिर के हमारे ही पास आने वाले हैं (93)
(उस वक़्त फैसला हो जाएगा कि) तो जो शख़्स अच्छे-अच्छे काम करेगा और वह ईमानवाला भी हो तो उसकी कोशिश अकारत न की जाएगी और हम उसके आमाल लिखते जाते हैं (94)
और जिस बस्ती को हमने तबाह कर डाला मुमकिन नहीं कि वह लोग क़यामत के दिन हिरफिर के से (हमारे पास) न लौटे (95)
बस इतना (तवक्कुफ़ तो ज़रूर होगा) कि जब याजूद माजूद (हद ऐ सिकन्दरी) की कै़द से खोल दिए जाएँगे और ये लोग (ज़मीन की) हर बुलन्दी से दौड़ते हुए निकल पड़ें (96)
और क़यामत का सच्चा वायदा नज़दीक आ जाए तो फिर काफ़िरों की आँखे एक दम से पथरा दी जाएँ (और कहने लगे) हाय हमारी शामत कि हम तो इस (दिन) से ग़फलत ही में (पड़े) रहे बल्कि (सच तो यूँ है कि अपने ऊपर) हम आप ज़ालिम थे (97)
(उस दिन किहा जाएगा कि ऐ कुफ़्फ़ार) तुम और जिस चीज़ की तुम खु़दा के सिवा परसतिश करते थे यक़ीनन जहन्नुम की ईधन (जलावन) होंगे (और) तुम सबको उसमें उतरना पड़ेगा (98)
अगर ये (सच्चे) माबूद होते तो उन्हें दोज़ख़ में न जाना पड़ता और (अब तो) सबके सब उसी में हमेशा रहेंगे (99)
उन लोगों की दोज़ख़ में चिंघाड़ होगी और ये लोग (अपने शोर व ग़ुल में) किसी की बात भी न सुन सकेंगे (100)
ज़बान अलबत्ता जिन लोगों के वास्ते हमारी तरफ से पहले ही भलाई (तक़दीर में लिखी जा चुकी) वह लोग दोज़ख़ से दूर ही दूर रखे जाएँगे (101)
(यहाँ तक) कि ये लोग उसकी भनक भी न सुनेंगे और ये लोग हमेशा अपनी मनमाँगी मुरादों में (चैन से) रहेंगे (102)
और उनको (क़यामत का) बड़े से बड़ा ख़ौफ़ भी दहशत में न लाएगा और फ़रिश्ते उन से खु़शी-खु़शी मुलाक़ात करेंगे और ये खु़शख़बरी देंगे कि यही वह तुम्हारा (खु़शी का) दिन है जिसका (दुनिया में) तुमसे वायदा किया जाता था (103)
(ये) वह दिन (होगा) जब हम आसमान को इस तरह लपेटेंगे जिस तरह ख़तों का तूमार लपेटा जाता है जिस तरह हमने (मख़लूक़ात को) पहली बार पैदा किया था (उसी तरह) दोबारा (पैदा) कर छोड़ेगें (ये वह) वायदा (है जिसका करना) हम पर (लाजि़म) है और हम उसे ज़रूर करके रहेंगे (104)
और हमने तो नसीहत (तौरेत) के बाद यक़ीनन जुबूर में लिख ही दिया था कि रूए ज़मीन के वारिस हमारे नेक बन्दे होंगे (105)
इसमें शक नहीं कि इसमें इबादत करने वालों के लिए (एहकामें खु़दा की) तबलीग़ है (106)
और (ऐ रसूल) हमने तो तुमको सारे दुनिया जहाँन के लोगों के हक़ में अज़सरतापा रहमत बनाकर भेजा (107)
तुम कह दो कि मेरे पास तो बस यही “वही” आई है कि तुम लोगों का माबूद बस यकता खु़दा है तो क्या तुम (उसके) फरमाबरदार बन्दे बनते हो (108)
फिर अगर ये लोग (उस पर भी) मुँह फेरें तो तुम कह दो कि मैंने तुम सबको यकसाँ ख़बर कर दी है और मैं नहीं जानता कि जिस (अज़ाब) का तुमसे वायदा किया गया है क़रीब आ पहुँचा या (अभी) दूर है (109)
इसमें शक नहीं कि वह उस बात को भी जानता है जो पुकार कर कही जाती है और जिसे तुम लोग छिपाते हो उससे भी खू़ब वाकि़फ है (110)
और मैं ये भी नहीं जानता कि शायद ये (ताख़ीरे अज़ाब तुम्हारे) वास्ते इम्तिहान हो और एक मोअययन मुद्दत तक (तुम्हारे लिए) चैन हो (111)
(आखि़र) रसूल ने दुआ की ऐ मेरे पालने वाले तू ठीक-ठीक मेरे और काफिरों के दरम्यिान फैसला कर दे और हमार परवरदिगार बड़ा मेहरबान है कि उसी से इन बातों में मदद माँगी जाती है जो तुम लोग बयान करते हो (112)

सूरए अल अम्बिया ख़त्म

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