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06 जून 2016

राणाप्रताप के बहादुर सेनापति हकीम खान सूरी


दोस्तों ७ जून महाराणा प्रताप की जयन्ती है ,,,राणाप्रताप के बहादुर सेनापति हकीम खान सूरी ने ही राणा प्रताप को हिम्मत और साहस देकर शिस्त्रांन पहन कर लड़ना सिखाया था ,,,हकीम खान ऐसा बहादुर था जो राणाप्रताप के हक़ में लड़ते हुए अकबर की सेना को हराकर शहीद हुआ और हल्दी घाटी के युद्ध में अकबर को कई मुस्लिम सेनिको के साथ मिलकर खदेड़ दिया ,,,,सेनापति ‘हकीम खां सूर’ ने सिखाया था ‘राणा प्रताप’ को शिरस्त्राण पहन कर लड़ना,,,,राणा प्रताप की जयंती वर्ष पर पहलुओं को बता रहा है।राणा प्रताप के सेनापति हकीम खां सूर की कहानी जो इतना वीर था कि तलवार लेकर मरा और तलवार के साथ ही दफनाया गया।एक बार उसके हमले से जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर की सेना को भी पीछे हटना पड़ा था।राणा प्रताप के बहादुर सेनापति हकीम खां सूरी के बिना हल्दीघाटी युद्ध का उल्लेख अधूरा है।18 जून, 1576 की सुबह जब दोनों सेनाएं टकराईं तो प्रताप की ओर से अकबर की सेना को सबसे पहला जवाब हकीम खां सूर के नेतृत्व वाली टुकड़ी ने ही दिया।महज 38 साल के इस युवा अफगानी पठान के नेतृत्व वाली सैन्य टुकड़ी ने अकबर के हरावल पर हमला करके मुगल सेना को चुनौती देने का साहस दिखाया था।मुगल सेना की सबसे पहली टुकड़ी का मुखिया राजा लूणकरण आगे बढ़ा तो हकीम खां ने पहाड़ों से निकल कर अप्रत्याशित हमला किया।वीरता ऐसी कि वीरगति प्राप्त करने के बाद भी उनके हाथ में रही तलवारबहादुर हकीम खां ने हल्दीघाटी के युद्ध में ही वीरगति पाई।उनकी बहादुरी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि वीरगति होने के बाद भी उनके हाथ में तलवार रही।उन्हें तलवार के साथ ही दफनाया। युद्ध शुरू हुआ तो सेना के सेनापति वे ही थे।इस सेना के दो हमलावर दस्ते तैयार किए गए।हकीम खां के कद का इसी से पता लगता है कि राणा ने एक हिस्से की कमान खुद संभाली और दूसरे का नेतृत्व हकीम खां को सौंपा।बाबर ने छीना साम्राज्य, महाराणा से आ मिले दरअसल हकीम खां और राणा प्रताप का शत्रु एक ही था।हकीम खां शेरशाह सुर सल्तनत के वारिस थे।मुगल बादशाह बाबर ने शेरशाह से ही साम्राज्य छीना था।हकीम खां अपने 1500 सैनिकों के साथ राणा के खेमे में आए था।राणा की एक पुकार पर एक गए थे हिन्दू-मुस्लिम हल्दीघाटी के युद्ध के इतिहास के पन्नों पर एक दोहा बहुत चर्चित है :अजां सुणी, मस्जिद गया, झालर सुण मंदरांह। रणभेरी सुण राण री, मैं साथ गया समरांह। यानी अजान सुनकर मुस्लिम मस्जिदों को गए और घंटियों की आवाजें सुनकर हिंदू देवालयों में गए।लेकिन जैसे ही राणा ने युद्ध भेरी बजवाई तो हम सभी मंदिरों और मस्जिदों से संग्राम लड़ने के लिए मुगलों के खिलाफ एक हो गए हकीम खां सूर ने ही सिखाया था शिरस्त्राण पहनकर लड़ना कहते हैं हल्दीघाटी युद्ध से कुछ समय पहले हकीम खां सूर बिहार गया हुआ था और वह अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ वहीं से लौटा था।हकीम खां युद्ध की लौहारी कलाओं का ज्ञाता था और उसी ने मेवाड़ी सेना को खूद यानी शिरस्त्राण पहनकर लड़ना सिखाया।इससे पहले मेवाड़ी सेनाएं पगड़ी पहनकर लड़ा करती थीं। इतिहासविदों का कहना है कि वह महाराणा उदयसिंह के समय से ही इस परिवार के संपर्क में था लेकिन राणा प्रताप की युद्ध शैली, शासन शैली और व्यक्तिगत गुणों ने उसे उनका मुरीद बना दिया था।उन जैसे मरजीवड़ों से मेवाड़ का इतिहास महक रहा है।

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