जयपुर. राजस्थान हाईकोर्ट ने नौ साल सुनवाई के बाद सोमवार को
ऐतिहासिक फैसला सुनाया। जैन धर्म की सैकड़ों सालों से प्रचलित
संथारा/सल्लेखना प्रथा को आत्महत्या के बराबर अपराध बताया। कोर्ट ने राज्य
सरकार को संथारा पर रोक लगाने का आदेश देते हुए कहा-संथारा लेने और संथारा
दिलाने वाले, दोनों के खिलाफ आपराधिक केस चलना चाहिए। संथारा लेने वालों के
खिलाफ आईपीसी की धारा 309 यानी आत्महत्या का अपराध का मुकदमा चलना चाहिए।
संथारा के लिए उकसाने पर धारा 306 के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए। हाईकोर्ट
के फैसले से जैन संतों में गुस्सा है। संतों ने कहा-कोर्ट में सही तरीके
से संथारा की व्याख्या नहीं की गई। संथारा का मतलब आत्महत्या नहीं है, यह
आत्म स्वतंत्रता है।
मामला पिछले नौ सालों से कोर्ट में था। निखिल सोनी ने 2006 में याचिका दायर की थी। उनकी दलील थी कि संथारा इच्छा-मृत्यु की ही तरह है। इसे धार्मिक आस्था कहना गलत है। हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस सुनील अंबवानी और जस्टिस वीएस सिराधना की बेंच ने अप्रैल में सुनवाई पूरी कर ली थी। फैसला अब आया है।
जनहित याचिका में जैन समुदाय के धार्मिक संस्थान संस्थानकवाली जैन
श्रावक संघ व श्रीमाल सभा मोती डूंगरी दादाबाड़ी सहित अन्य को पक्षकार
बनाया गया था। जैन अनुयायियों ने धार्मिक अास्था का हवाला देकर अदालत से इस
मामले में दखल नहीं देने को कहा था। वहीं याचिकाकर्ता का कहना था कि यह
संविधान के खिलाफ है।
आखिर क्या है ये संथारा?
जैन समाज में यह हजारों साल पुरानी प्रथा है। इसमें जब व्यक्ति को
लगता है कि उसकी मृत्यु निकट है तो वह खुद को एक कमरे में बंद कर खाना-पीना
त्याग देता है। मौन व्रत रख लेता है। इसके बाद वह किसी भी दिन देह त्याग
देता है।
कितना व्यापक है यह?
वैसे इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। लेकिन जैन संगठनों के मुताबिक हर साल
200 से 300 लोग संथारा के तहत देह त्यागते हैं। अकेले राजस्थान में ही यह
आंकड़ा 100 से ज्यादा है।
हजारों साल की प्रथा का अब विरोध क्यों?
प्रथा बेशक हजारों साल पुरानी हो, लेकिन बदलते वक्त के साथ इसका विरोध
बढ़ने लगा था। इसने जोर पकड़ा 2006 में। जब कैंसर से जूझ रही जयपुर की विमला
देवी नामक महिला को एक जैनमुनि ने संथारा की अनुमति दी। इसके बाद विमला
देवी ने 22 दिनों तक अन्न-जल का त्याग करके जान दे दी। जान देने की इस
अनुमति को बाद में हाईकोर्ट में लगाई गई याचिका के साथ जोड़कर चुनौती दी गई
थी।
कोर्ट ने इसे गलत क्यों माना?
कोर्ट ने जिस याचिका पर ये फैसला दिया, उसमें कहा गया था कि संथारा
सती प्रथा की ही तरह है। जब सती प्रथा आत्महत्या की श्रेणी में आती है तो
संथारा को भी आत्महत्या ही माना जाए। अदालत ने इस तर्क को माना है। कोर्ट
ने कहा- जैन समाज यह भी साबित नहीं कर पाया कि यह प्रथा प्राचीनकाल से चली आ
रही है।
जैन समाज क्यों नाराज?
जैन आचार्य मुनि लोकेश का कहना है कि आत्महत्या तनाव और कुंठा की
स्थिति में की जाती है, जबकि संथारा प्रथा आस्था का विषय है। यह आवेश में
किया गया कृत्य नहीं,बल्कि सोच-समझकर लिया गया व्रत है।
तो अब क्या होगा?
जैन संत तरुणसागर का कहना है कि समाज देशभर में इसका तीव्र विरोध
करेगा। जरूरत पड़ी तो सड़कों पर भी उतरेगा। वहीं कुछ संगठन फैसले को सुप्रीम
कोर्ट में चुनौती देने की बात भी कह रहे हैं।
याचिकाकर्ता ने बताया था संथारा को इच्छा मृत्यु के समान
संथारा लेने वाला शख्स अन्न-जल छोड़ देता है। मृत्यु का इंतजार करता
है। इसे धार्मिक अास्था कहना गलत है। आस्था की कानून में कोई जगह नहीं है।
इसे अवैध घोषित कर ऐसा करने वालों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे चलने चाहिए -निखिल सोनी, याचिकाकर्ता
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