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15 जून 2015

“चाँद देख कर रोज़े रखो और चाँद देख कर रोज़े खोलो,

हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) का अमल और क़ौल :
1) रमज़ान शुरू करने और पूरा होने के तआल्लुक़ से:
आइये हम हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) के अमल पर नज़र डालें। बुखारी और मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया, “चाँद देख कर रोज़े रखो और चाँद देख कर रोज़े खोलो, अगर तुम पर बादल छाऐ हों तो तीस दिनों की गिनती पूरी करो” (सही बुखारी किताबुल सोम जिल्द अव्वल हदीस रक़म 1782)। हदीसे पाक में लफज़ “सूमू” है जो जमा है और पूरी उम्मत से हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) का आम खिताब है।
2) रमज़ान के चांद की इत्तेला और रमज़ान शुरू होने के तआल्लुक़ से:
अबुदाऊद से रिवायत हदीस के मुताबिक़ एक एअराबी हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) के पास आया और बताया कि उसने रमज़ान का चाँद देख लिया है, हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने एअराबी से पूछा कि क्या अल्लाह तआला के एक होने की शहादत देता है, एअराबी ने इक़रार किया कि हॉ वह यह शहादत देता है, फिर हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने सवाल किया कि क्या वह मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) का अल्लाह के रसूल होने का इक़रार करता है, इस पर भी एअराबी ने हॉ कहा और गवाही दी कि उसने चाँद देखा है, फिर हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने हज़रत बिलाल (रज़ीअल्लाहो अन्हो). को हुक्म दिया कि वह यह एलान कर दें कि कल से रोज़ों का हुक्म है। (रावी हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास (रज़ीअल्लाहो अन्हो).- सुनन अबुदाऊद रक़म हदीस 2333)। इसी तरह अबुदाऊद की और रिवायात जैसे हदीस रक़म 2334 और 2335 में भी यही बात दूसरे रावियों के हवाले से नक़ल की गई है।
3) ईद के चांद की इत्तेला और माहे रमज़ान पूरा होने के तआल्लुक़ से:
इसी तरह ईद के चाँद के वक़्त भी हुज़़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने लोगों की शहादतें क़ुबूल फ़रमाई। दिलचस्प बात यह है कि चाँद की शहादतें क़ुबूल किए जाने वाली तक़रीबन हर हदीस में हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने गवाही देने वाले से इसके इस्लाम क़ुबूल करने की बात को पूछ पूछ कर यक़ीनी बनाया कि वह मुस्लिम ही है लेकिन इनमें से किसी भी हदीस में उस गवाह से उसके नाम, या शहर या उसके शहर के मदीने मुनव्वरह से फ़ासले के बाबत पूछा जाना रिवायत नहीं किया गया है, क्यूंकि चाँद की इत्तिला को तो सारे मुसलमानों पर, ख़्वाह वह किसी भी खित्ते में मुक़ीम हों, और उनका शहर मदीना मुनव्वरह से कितने ही फ़ासले पर हो, मुन्तबिक़ होना ही है, वरना आप खुद (صلى الله عليه وسلم) ऐसे गवाह से फ़ासले की बाबत पूछ कर उसकी शहादत को रद्द फ़रमा देते और उम्मत को यह सबक़ दे जाते कि इतने इतने फ़ासले के बाद चाँद की शहादत क़ुबूल न करते हुए अपने ही मोहल्ले, गली, शहर या मुल्क में चाँद के दिख जाने का इन्तेज़ार करो। मिसाल के तौर पर अबुदाऊद ही में हदीस रक़म 1153 मुलाहिज़ा फ़रमाइये, हज़रत अबु अमीर इब्ने अनस (रज़िअल्लाहो अन्हू) अपने चचा की सनद पर रिवायत करते हैं कि कुछ लोग ऊॅटों पर सवार हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) के पास तशरीफ़ लाए और बयान किया कि इन्होंने कल चाँद देखा है, हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने लागों को रोज़ा खेालने का और अगले दिन (ईद की) नमाज़ के लिए ईदगाह पहुंचने का हुक्म दिया। हालांकि उस वक़्त असर का वक़्त हो चुका था और रोज़ा मुकम्मिल हुआ ही चाहता था, लेकिन कहीं और चाँद के दिख जाने से मदीना मुनव्वरह में भी अब चूंकि ईद होना थी लिहाज़ा रोज़ा हराम हो जाता चुनांचे उसी वक्त हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने अफ़तार का हुक्म दिया। आज उसी मदीने में चाँद हो जाने और ईद हो जाने के बावजूद हिन्दुस्तान के बेशतर इलाक़ों में तीसवां या कभी उन्तीसवां रोज़ा रखना आम बात हो गई है, सवाल यह पैदा होता है कि हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) के बाद अब कौनसा शरई हुक्म बदल गया है ?

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