नई दिल्ली. दिल्ली विधानसभा चुनाव
में इस बार किसके सिर पर होगा ताज और किसको मिलेगा राजनीतिक वनवास? क्या
यहां भी चलेगा मोदी का जादू या फिर आप या कांग्रेस की बनेगी सरकार? इन
सवालों के जवाब 10 फरवरी को चुनाव नतीजों के साथ मिलेंगे। हैं आप।
जानिए कैसे पड़ा दिल्ली का नाम और क्या हैं इससे जुड़ी कहावतें-
किल्ली तो ढिल्ली भई... और नाम पड़ गया दिल्ली
ईसा पूर्व 50 में मौर्य राजा थे जिनका नाम था धिल्लु। उन्हें दिलु भी
कहा जाता था। माना जाता है कि यहीं से अपभ्रंश होकर नाम दिल्ली पड़ गया।
लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि तोमरवंश के एक राजा धव ने इलाके का नाम ढीली रख
दिया था क्योंकि किले के अंदर लोहे का खंभा ढीला था और उसे बदला गया था। यह
ढीली शब्द बाद में दिल्ली हो गया। एक और तर्क यह है कि तोमरवंश के दौरान
जो सिक्के बनाए जाते थे उन्हें देहलीवाल कहा करते थे। इसी से दिल्ली नाम
पड़ा। वहीं, कुछ लोगों का मानना है कि इस शहर को हजार-डेढ़ हजार वर्ष पहले
हिंदुस्तान की दहलीज़ माना था। दहलीज़ का अपभ्रंश दिल्ली हो गया।
हालांकि दावे मौर्य राजा दिलु को लेकर ही होते हैं। उनसे जुड़ी एक
कहानी है। माना जाता है कि उनके सिंहासन के ऐन आगे एक कील ठोकी गई। कहा गया
कि यह कील पाताल तक पहुंच गई है। ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि जब तक
यह कील है, तब तक साम्राज्य कायम रहेगा। कील काफी छोटी थी इसलिए राजा को शक
हुआ। उन्होंने कील उखड़वा ली। बाद में यह दोबारा गाड़ी गई, लेकिन फिर वह
मजबूती से नहीं धंसी और ढीली रह गई। तब से कहावत बनी कि किल्ली तो ढिल्ली
भई। कहावत मशहूर होती गई और किल्ली, ढिल्ली और दिलु मिलाकर दिल्ली बन गया ,,
1320 ईसवीं के आसपास दिल्ली में गयासुद्दीन तुगलक की सल्तनत चलती थी।
लेकिन उस वक्त दिल्ली तुगलकों से ज्यादा सूफी हजरत निजामुद्दीन औलिया और
उनके शागिर्द अमीर खुसरो के नाम से जानी जाती थी। तब खुसरो तुगलक के दरबारी
थे। तुगलक खुसरो को तो चाहता था मगर औलिया से चिढ़ता था। उसे लगता था कि
औलिया के इर्दगिर्द बैठे लोग उसके खिलाफ साजिशें रचते हैं। एक बार तुगलक
कहीं से लौट रहा था। बीच रास्ते से ही उसने सूफी हजरत निजामुद्दीन तक संदेश
भिजवा दिया कि उसकी वापसी से पहले औलिया दिल्ली छोड़ दें। खुसरो को इस बात
से तकलीफ हुई। वे औलिया के पास पहुंचे। तब औलिया ने उनसे कहा कि हनूज
दिल्ली दूरस्त। यानी दिल्ली अभी दूर है। तुगलक के लिए दिल्ली दूर ही रह गई।
रास्ते में उसके पड़ाव और स्वागत के लिए लकड़ी के पुल पर शाही खेमा बनवाया
गया था। लेकिन रात को ही भयंकर अंधड़ से वह टूट कर गिर गया और तुगलक की
वहीं दबकर मौत हो गई। 1803 में जैसे ही दिल्ली अंग्रेजों के नियंत्रण में आई मुगल कमजोर हो गए।
तब वहां मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर थे। वे तलवार से ज्यादा कलम के लिए
जाने गए। 1857 की क्रांति में जो सेनानी शामिल हुए, उन्होंने जफर को अपना
बादशाह घोषित कर दिया। लेकिन उनकी सल्तनत सिमटी हुई थी। यह कहा जाने लगा था
कि शहंशाह-ए-आलम, ला दिल्ली अज पालम। यानी शहंशाह की हुकूमत दिल्ली के
लालकिले से पालम गांव तक सिमट गई है।
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