मद्रास
हाई कोर्ट के एक ‘भ्रष्ट जज’ को सरकार द्वारा राजनीतिक दबाव देकर बचाए
जाने और प्रमोशन दिलाने के जस्टिस मार्कंडेय काटजू के बयान पर बवाल थमने के
नाम नहीं ले रहा है। अब वर्तमान केंद्रीय सरकार ने भी उनके इस दावे की
पुष्टि कर दी है। इस मामले पर संसद में चर्चा के दौरान कानून मंत्री ने कहा
कि जून 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के ऑफिस ने सुप्रीम
कोर्ट कॉलेजियम से उस जज के नाम पर विचार करने के लिए कहा था। कॉलेजियम
द्वारा यह अनुरोध ठुकराए जाने के बाद कानून मंत्रालय ने इस मामले में एक और
नोट भेजा था।
जज की नियुक्ति में कथित राजनीतिक दबाव के
खिलाफ लोकसभा में लगातार दूसरे दिन भारी हंगामे के बीच क़ानून मंत्री ने
माना कि पिछले शासन काल में कॉलेजियम ने उस जज के सेवा विस्तार देने की
सिफारिश की थी। इस मुद्दे को लेकर लोकसभा की कार्यवाही शून्यकाल में दो बार
स्थगित करनी पड़ी तथा राज्यसभा में भी कार्यवाही बाधित हुई।
लोकसभा में कानून मंत्री की ओर से इस मुद्दे
पर बयान देने की मांग पर मंत्री महोदय ने कहा,’वर्ष 2003 में सुप्रीम
कोर्ट कॉलेजियम ने कुछ आपत्तियां जताई थीं और कुछ सवाल किए थे। इसके बाद
फैसला किया गया कि संबंधित जज के मामले को नहीं लिया जाएगा। लेकिन बाद में
रधानमंत्री कार्यालय की ओर से स्पष्टीकरण मांगा गया कि उस जज के बारे में
सिफारिश क्यों नहीं की जानी चाहिए। कॉलेजियम ने फिर से कहा कि उनके नाम की
सिफारिश होनी ही नहीं चाहिए। बाद में विधि मंत्रालय के न्याय विभाग ने
कॉलेजियम को एक नोट लिखा, जिसके बाद उसने कहा कि कुछ विस्तार के लिए जज के
मामले पर विचार किया जा सकता है।’
सनासाद में कानून मंत्री ने कहा, ‘वह जज
रिटायर हो चुके हैं और अब वह इस दुनिया में भी नहीं हैं। कॉलेजियम के जज भी
रिटायर हो चुके हैं और सुप्रीम कोर्ट ने शांति भूषण मामले में भी कहा है
कि गुजरे वक्त को लौटाया नहीं जा सकता।’ सदस्यों द्वारा जताई गई चिंता
वाजिब है और जजों की नियुक्ति की व्यवस्था में सुधार किए जाने की जरूरत है।
उन्होंने इसके साथ ही कहा कि सरकार ऐसी नियुक्तियां करने के लिए राष्ट्रीय
न्यायिक आयोग गठित करने को लेकर काफी इच्छुक है।
सदन में लगातार दूसरे दिन यह मुद्दा उठाए
जाने पर एक कांग्रेस नेता ने कहा कि संसद में न्यायपालिका और जजों के बारे
में चर्चा नहीं हो सकती। इस पर कानून मंत्री ने कहा, ‘मैं किसी जज के आचरण
पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहा हूं।’
जानकारी के मुताबिक, 3 अप्रैल 2003 को ही जस्टिस अशोक कुमार को मद्रास हाई
कोर्ट का अडिशनल जज बनाया गया था और उस वक्त केंद्र की एनडीए की सरकार को
डीएमके का समर्थन था। जस्टिस काटजू ने दावा किया था कि एक जज को (जस्टिस
अशोक कुमार) को पहले सीधे जिला जज बनाया गया और बाद में उन्हें हाई कोर्ट
का अडिशनल जज बना दिया गया।
काटजू का कहना है कि जब वह नवंबर 2004 में
मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस बनकर आए तो भ्रष्टाचार की शिकायत पर
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस आर. सी. लाहोटी से उस जज के
खिलाफ आईबी जांच कराने की सिफारिश की थी।
काटजू का कहना है, ‘जांच में आईबी की
प्रतिकूल रिपोर्ट और कॉलेजियम की इच्छा के खिलाफ जाकर राजनीतिक दबाव की वजह
से जस्टिस लाहोटी ने जज को अडिशनल जज के तौर पर एक और साल का कार्यकाल दे
दिया। उसके बाद चीफ जस्टिस बने वाईके सभरवाल ने भी उस जज (जस्टिस अशोक
कुमार) को दो साल का एक कार्यकाल और दे दिया। उनके उत्तराधिकारी चीफ जस्टिस
के.जी बालकृष्णन ने उस जज को साल 2008 में स्थायी जज के तौर पर नियुक्त
करते हुए किसी और हाईकोर्ट (आंध्र प्रदेश) में ट्रांसफर कर दिया था।’
वर्ष 2004 से 2009 तक यूपीए सरकार में कानून
मंत्री रहे एचआर भारद्वाज ने यह बात स्वीकार की है कि वर्ष 2003 में एक
जिला जज की नियुक्ति मद्रास हाई कोर्ट में बतौर अडिशनल जज हुई थी और बाद
में कई प्रतिकूल खुफिया रिपोर्ट्स के बावजूद उसे स्थाई जज के तौर पर
नियुक्ति मिल गई, क्योंकि इस जज को महत्वपूर्ण राजनीतिक समर्थन मिला हुआ
था।
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