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27 जुलाई 2014

" चल मन उठ अब तैयारी कर "

" चल मन उठ अब तैयारी कर "
हर तरफ धन-दौलत, शौहरत, रिश्तों -नातों की अपार भीड़ में घिरे रहकर भी मन कहीं अकेला खड़ा दिखाई देता है। और तब स्वीकारना पड़ता है इस अंतिम सच को
चल मन, उठ अब तैयारी कर
यह चला - चली की वेला है
कुछ कच्ची - कुछ पक्की तिथियाँ
कुछ खट्टी - मीठी स्मृतियाँ
स्पष्ट दीखते कुछ चेहरे
कुछ धुंधली होती आकृतियाँ
है भीड़ बहुत आगे - पीछे,
तू, फिर भी आज अकेला है।
मां की वो थपकी थी न्यारी
नन्ही बिटिया की किलकारी
छोटे बेटे की नादानी,
एक घर में थी दुनिया सारी
चल इन सबसे अब दूर निकल,
दुनिया यह उजड़ा मेला है।
कुछ कड़वे पल संघर्षों के
कुछ छण ऊँचे उत्कर्शों के
कुछ साल लड़कपन वाले भी
कुछ अनुभव बीते वर्षों के
अब इन सुधियों के दीप बुझा
आगे आँधी का रेला है।
जीवन सोते जगते बीता
खुद अपने को ठगते बीता
धन-दौलत, शौहरत , सपनो के
आगे पीछे भगते बीता
अब जाकर समझ में आया है
यह दुनिया मात्र झमेला है
झूठे दिन, झूठी राते हैं
झूठी दुनियावी बाते हैं
अंतिम सच केवल इतना है
झूठे सब रिश्ते- नाते हैं
भूल के सब कुछ छोड़ निकल
अब तक यहाँ जो झेला है ।
इससे पहले तन सड़ जाये
कांटा सा मन में गड़ जाये
पतझर आने से पहले ही
पत्ता डाली से झर जाये
उससे पहले अंतिम पथ पर
चल, चलना तुझे अकेला है।

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