बेंगलुरु. बलात्कार पीड़िताओं के इलाज और जांच के लिए सरकार ने इस साल मार्च में नई गाइडलाइंस जारी की थी लेकिन कर्नाटक में इनकी धज्जियां उड़ाई गईं। राज्य के एक सरकारी अस्पताल में रेप पीड़िता को मेडिकल टेस्ट के लिए बिना कपड़ों के तीन घंटे इंतजार करवाया गया।
क्या है मामला
मानसिक तौर पर विक्षिप्त 23 वर्षीय रेप पीड़िता को मैसूर के छेलूवांबा सरकारी अस्पताल
में मेडिकल जांच के लिए लाया गया था। पीड़िता के परिवार ने आरोप लगाया है
कि लड़की को अस्पताल के बेड पर तीन घंटे इंतजार करना पड़ा। इस दौरान उसके
तन पर कपड़े तक नहीं थे।मेडिकल स्टाफ ने पीड़िता के परिवार को भी अपमानित
किया। कर्नाटक महिला आयोग की अध्यक्ष मंजुला मनसा ने अपनी जांच में आरोपों
को सही पाया है।
अस्पताल प्रशासन का कहना है, 'रेप पीड़िताओं की मेडिकल जांच के लिए
हमारे पास अलग से कोई व्यवस्था नहीं है। उनका मेडिकल टेस्ट लेबर वार्ड में
ही कराया जाता है।'
क्या-क्या है नई गाइडलाइंस में
1. हर अस्पताल को रेप केस में मेडिको-लीगल मामलों (एमएलसी) के लिए अलग से कमरा मुहैया कराना होगा और उनके पास गाइडलाइंस में बताए गए आवश्यक उपकरण होना जरूरी है।
मार्च में सरकार ने बलात्कार पीडि़तों की जांच के लिए नए दिशानिर्देश
जारी कर 'टू फिंगर' टेस्ट पर रोक लगा दी थी। नए दिशानिर्देश में इसे
अवैज्ञानिक बताते हुए गैर-कानूनी करार दिया गया था। अस्पतालों से पीड़ितों
की फॉरेंसिक और मेडिकल जांच के लिए अलग से कमरे बनाने के लिए भी कहा गया
था। माना जा रहा था कि नए दिशानिर्देश पर अमल सुनिश्चित होने के बाद
बलात्कार के बाद पीडि़ता की 'मानसिक पीड़ा' बढ़ाने की व्यवस्था पर रोक
लगेगी।
क्या-क्या है नई गाइडलाइंस में
1. हर अस्पताल को रेप केस में मेडिको-लीगल मामलों (एमएलसी) के लिए अलग से कमरा मुहैया कराना होगा और उनके पास गाइडलाइंस में बताए गए आवश्यक उपकरण होना जरूरी है।
2. पीड़ितों को वैकल्पिक कपड़े मुहैया कराने का प्रावधान होना चाहिए
और जांच करते समय डॉक्टर के अलावा तीसरा व्यक्ति कमरे में नहीं होना चाहिए।
3. यदि डॉक्टर पुरुष है तो एक महिला वहां होनी चाहिए।
4. डॉक्टरों द्वारा किए जाने वाले 'टू फिंगर' टेस्ट को गैर कानूनी बना
दिया गया है। नियमावली में माना गया है कि यह वैज्ञानिक नहीं है और इसे
नहीं किया जाना चाहिए।
5. डॉक्टरों से 'रेप' शब्द का इस्तेमाल नहीं करने को कहा गया है, क्योंकि यह मेडिकल नहीं कानूनी टर्म है।
6. अब तक बलात्कार पीड़ितों की जांच केवल पुलिस के कहने पर की जाती
थी, लेकिन अब यदि पीड़ित पहले अस्पताल आती है तो एफआईआर के बिना भी
डॉक्टरों को उसकी जांच करनी चाहिए।
7. डॉक्टरों को पीड़ित को जांच के तरीके और विभिन्न प्रक्रियाओं की
जानकारी देनी होगी और जानकारी ऐसी भाषा में दी जानी चाहिए, जिन्हें मरीज
समझ सके।
टू फिंगर टेस्ट के दौरान मैनुअल एग्जामिनेशन का तरीका अपनाया जाता था
जो कि बेहद अमानवीय था। दुराचार के मामले की इस तरह की मेडिकल जांच पर
सुप्रीम कोर्ट ने आपत्ति जाहिर करते हुए नए नियम बनाने के निर्देश दिए थे।
जिसके बाद उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने नए तरीकों को अपनाने
के निर्देश दिए थे। इन नए नियमों के जोड़े जाने के बाद लोगों को न्याय
मिलने में काफी सहूलियत की उम्मीद जगी थी। लेकिन, इस नियम का सौ फीसदी पालन
सुनिश्चित नहीं हो
टू-फिंगर टेस्ट
टू-फिंगर टेस्ट में महिला के हायमन (कौमार्य झिल्ली) का मेडिकल
इंस्पेक्शन होता है। पिछले साल मई में सुप्रीम कोर्ट ने दुष्कर्म की पुष्टि
के लिए किए जाने वाले टू-फिंगर टेस्ट को पीडि़त की निजता का हनन बताया था।
साथ ही सरकार से कहा था कि इस क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक तरीके को बदला
जाए। जस्टिस बीएस चौहान और एफएमआई कलीफुल्ला की बेंच ने कहा था कि यह टेस्ट
सिर्फ यौन संबंधों की पुष्टि करता है। इसमें पुष्टि होने के बावजूद यह
नहीं कहा जा सकता कि पीडि़त की सहमति थी या नहीं। बेंच ने कहा कि यौन हिंसा
के मामलों से निपटने में चिकित्सकीय प्रक्रियाओं में स्वास्थ्य को सबसे
ज्यादा महत्व दिया जाए। पीडि़तों को सेवाएं उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व
है। सुरक्षा के पर्याप्त उपाय किए जाए। उनकी निजता के साथ कोई मनमाना या
गैरकानूनी हस्तक्षेप न हो।
बलात्कार की शिकार पीड़िता को अक्सर ऐसे परीक्षणों से गुजरना पड़ता
है, जो किसी को भी अपमानित कर सकता है। कुछ साल पहले तक देश में रेप की
पुष्टि के लिए सबसे ज्यादा अपनाया जाने वाला तरीका 'टू फिंगर' टेस्ट था।
डॉक्टरों के मुताबिक कई बार टू फिंगर टेस्ट जांच में यह भी पता नहीं चल
पाता था कि पीड़िता के साथ वास्तव में बलात्कार किया गया है या नहीं। इस
तरीके से केवल यह जाना जा सकता था कि पीड़ित महिला ने पहले किसी के साथ
शारीरिक संबंध बनाया है कि नहीं।
वैज्ञानिकों ने रेप की पुष्टि के लिए 'टू फिंगर' टेस्ट की जगह कई
अन्य तरीके खोज निकाले हैं, जो ज्यादा सटीक और संवेदनशील हैं। ऐसा ही एक
तरीका है कॉल्पोस्कोपी टेस्ट। कॉल्पोस्कोपी टेस्ट में कोई भी काम मैनुअली
नहीं होता है। कई राज्यों ने इस बारे में नियम बनाए हैं। इन नियमों के
मुताबिक पीड़िता के कॉल्पोस्कोपी टेस्ट के साथ ही आरोपी की भी जांच कराई
जाती है। कॉल्पोस्कोपी टेस्ट के बाद दुराचार के दौरान हुए संघर्ष से हुई
चोटों को ही मुख्य सुबूत बनाकर अदालत में पेश किया जाना चाहिए।
कैसे होता है कॉल्पोस्कोपी टेस्ट
कॉल्पोस्कोपी टेस्ट में एक माइक्रोस्कोप की मदद से पीड़िता के निजी अंगों में आई चोटों को चिह्नित किया जा सकता है। रेप की पुष्टि के लिए अपनाए जा रहे नए नियमों को विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के अनुसार तैयार किया गया है जिसमें यह कहा गया है कि किसी भी पीड़िता व पीड़ित के निजी अंगों का परीक्षण करते समय उसके मानवाधिकारों और संवेदनशीलता का पूरा ध्यान रखा जाए। कई राज्यों में ऐसे नियम बनाए गए हैं जिसके तहत पीड़ित महिला और आरोपी पुरुष की अलग-अलग मेडिकल जांच कर उसे दो प्रोफार्मा में भरकर अदालत को देना होगा।
कॉल्पोस्कोपी टेस्ट में एक माइक्रोस्कोप की मदद से पीड़िता के निजी अंगों में आई चोटों को चिह्नित किया जा सकता है। रेप की पुष्टि के लिए अपनाए जा रहे नए नियमों को विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के अनुसार तैयार किया गया है जिसमें यह कहा गया है कि किसी भी पीड़िता व पीड़ित के निजी अंगों का परीक्षण करते समय उसके मानवाधिकारों और संवेदनशीलता का पूरा ध्यान रखा जाए। कई राज्यों में ऐसे नियम बनाए गए हैं जिसके तहत पीड़ित महिला और आरोपी पुरुष की अलग-अलग मेडिकल जांच कर उसे दो प्रोफार्मा में भरकर अदालत को देना होगा।
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