भारतवर्ष में आधुनिक ढंग की
पत्रकारिता का जन्म अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में
कलकत्ता,
बंबई और
मद्रास में हुआ। 1780 ई. में प्रकाशित हिके (Hickey) का "कलकत्ता गज़ट" कदाचित् इस ओर पहला प्रयत्न था।
हिंदी के पहले पत्र
उदंत मार्तण्ड (1826) के प्रकाशित होने तक इन नगरों की ऐंग्लोइंडियन
अंग्रेजी पत्रकारिता काफी विकसित हो गई थी।
इन अंतिम वर्षों में फारसी भाषा में भी पत्रकारिता का जन्म हो चुका था।
18वीं शताब्दी के फारसी पत्र कदाचित् हस्तलिखित पत्र थे। 1801 में
हिंदुस्थान इंटेलिजेंस ओरिऐंटल ऐंथॉलॉजी (Hindusthan Intelligence Oriental
Anthology) नाम का जो संकलन प्रकाशित हुआ उसमें उत्तर भारत के कितने ही
"अखबारों" के उद्धरण थे। 1810 में मौलवी इकराम अली ने कलकत्ता से लीथो पत्र
"हिंदोस्तानी" प्रकाशित करना आरंभ किया। 1816 में गंगाकिशोर भट्टाचार्य ने
"बंगाल गजट" का प्रवर्तन किया। यह पहला बंगला पत्र था। बाद में श्रीरामपुर
के पादरियों ने प्रसिद्ध प्रचारपत्र "समाचार दर्पण" को (27 मई, 1818) जन्म
दिया। इन प्रारंभिक पत्रों के बाद 1823 में हमें बँगला भाषा के
समाचारचंद्रिका और "संवाद कौमुदी", फारसी उर्दू के "जामे जहाँनुमा" और
"शमसुल अखबार" तथा गुजराती के "मुंबई समाचार" के दर्शन होते हैं।
यह स्पष्ट है कि हिंदी पत्रकारिता बहुत बाद की चीज नहीं है। दिल्ली का
"उर्दू अखबार" (1833) और मराठी का "दिग्दर्शन" (1837) हिंदी के पहले पत्र "
उदंत मार्तंड"
(1826) के बाद ही आए। "उदंत मार्तंड" के संपादक पंडित जुगलकिशोर थे। यह
साप्ताहिक पत्र था। पत्र की भाषा पछाँही हिंदी रहती थी, जिसे पत्र के
संपादकों ने "मध्यदेशीय भाषा" कहा है। यह पत्र 1827 में बंद हो गया। उन
दिनों सरकारी सहायता के बिना किसी भी पत्र का चलना असंभव था। कंपनी सरकार
ने मिशनरियों के पत्र को डाक आदि की सुविधा दे रखी थी, परंतु चेष्टा करने
पर भी "उदंत मार्तंड" को यह सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी।
हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण
1826 ई. से 1873 ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई. में
भारतेंदु
ने "हरिश्चंद्र मैगजीन" की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र "हरिश्चंद्र
चंद्रिका" नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैसे भारतेंदु का "कविवचन सुधा" पत्र 1867
में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग
लिया था; परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में "हरिश्चंद्र मैगजीन" से
ही हुआ। इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे
पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है। "उदंत
मार्तंड" के बाद प्रमुख पत्र हैं :
बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड
पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर
(1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850), मजहरुलसरूर (1850),
बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854),
दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश
(1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र
(1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी
पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867),
ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास
(1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश
(1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870),
हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र
(1872), और बोधा समाचार (1872)।
इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था
"समाचार सुधावर्षण" जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित
होता था। यह दैनिक पत्र 1871 तक चलता रहा। अधिकांश पत्र आगरा से प्रकाशित
होते थे जो उन दिनों एक बड़ा शिक्षाकेंद्र था, और विद्यार्थीसमाज की
आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। शेष ब्रह्मसमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के
प्रचार कार्य से संबंधित थे। बहुत से पत्र द्विभाषीय (हिंदी उर्दू) थे और
कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती
है। हिंदीप्रदेश के प्रारंभिक पत्रों में "बनारस अखबार" (1845) काफी
प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 में तारामोहन मैत्र ने
काशी से साप्ताहिक "सुधाकर" और 1855 में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से
"प्रजाहितैषी" का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसाद का "बनारस अखबार"
उर्दू भाषाशैली को अपनाता था तो ये दोनों पत्र पंडिताऊ तत्समप्रधान शैली की
ओर झुकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1867 से पहले भाषाशैली के संबंध
में हिंदी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे। इस वर्ष
कवि वचनसुधा का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहला महत्वपूर्ण पत्र कह
सकते हैं। पहले यह मासिक था, फिर पाक्षिक हुआ और अंत में साप्ताहिक।
भारतेंदु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इस पत्र के माध्यम से हुआ, परंतु
सच तो यह है कि "हरिश्चंद्र मैगजीन" के प्रकाशन (1873) तक वे भी भाषाशैली
और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं।
हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग : भारतेंदु युग
हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक
छोर पर भारतेंदु का "हरिश्चंद्र मैगजीन" था ओर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा
अनुमोदनप्राप्त "सरस्वती"। इन 27 वर्षों में प्रकाशित पत्रों की संख्या
300-350 से ऊपर है और ये नागपुर तक फैले हुए हैं। अधिकांश पत्र मासिक या
साप्ताहिक थे। मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा (उपन्यास), वार्ता आदि के
रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परंतु अधिकांश पत्र 10-15
पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में "विचारपत्र"
ही कह सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उनपर टिप्पणियों का भी
महत्वपूर्ण स्थान था। वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह
नहीं था और कदाचित् इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक
महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग लिया था।
उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेंदु की पत्रकारिता थी।
"कविवचनसुधा" (1867), "हरिश्चंद्र मैगजीन" (1874), श्री हरिश्चंद्र
चंद्रिका" (1874), बालबोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिक, 1874) के रूप में
भारतेंदु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था। उनकी टीकाटिप्पणियों से
अधिकरी तक घबराते थे और "कविवचनसुधा" के "पंच" पर रुष्ट होकर काशी के
मजिस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा
दिया था। इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेंदु पूर्णतया
निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। "हिंदी
प्रदीप", "भारतजीवन" आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था।
उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे।
भारतेंदु के बाद
भारतेंदु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित
रुद्रदत्त शर्म, (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877),
दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि,
1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीर्त्ति-सुधाकर, 1878), बदरीनारायण चौधरी
"प्रेमधन" (आनंदकादंबिनी, 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार,
1882), राधाचरण गोस्वामी (भारतेंदु, 1882),
पंडित गौरीदत्त
(देवनागरी प्रचारक, 1882), राज रामपाल सिंह (हिंदुस्तान, 1883),
प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण, 1883), अंबिकादत्त व्यास, (पीयूषप्रवाह,
1884), बाबू रामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पं. रामगुलाम अवस्थी
(शुभचिंतक, 1888), योगेशचंद्र वसु (हिंदी बंगवासी, 1890), पं. कुंदनलाल
(कवि व चित्रकार, 1891), और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास
(साहित्य सुधानिधि, 1894)। 1895 ई. में "नागरीप्रचारिणी पत्रिका" का
प्रकाशन आरंभ होता है। इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आरंभ हुआ और
इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं। 1900 ई. में "सरस्वती"
और "सुदर्शन" के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर
पटाक्षेप हो जाता है।
इन 25 वर्षों में हमारी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई।
प्रारंभिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे। भारतेंदु ने
सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं। उन्होंने ही
"बालाबोधिनी" (1874) नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया। कुछ वर्ष बाद
महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं - "भारतभगिनी" (हरदेवी,
1888), "सुगृहिणी" (हेमंतकुमारी, 1889)। इन वर्षों में धर्म के क्षेत्र में
आर्यसमाज और सनातन धर्म के प्रचारक विशेष सक्रिय थे। ब्रह्मसमाज और राधास्वामी मत से संबंधित कुछ पत्र और
मिर्जापुर
जैसे ईसाई केंद्रों से कुछ ईसाई धर्म संबंधी पत्र भी सामने आते हैं, परंतु
युग की धार्मिक प्रतिक्रियाओं को हम आर्यसमाज के और पौराणिकों के पत्रों
में ही पाते हैं। आज ये पत्र कदाचित् उतने महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ते,
परंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने हमारी गद्यशैली को पुष्ट किया और जनता
में नए विचारों की ज्योति भी। इन धार्मिक वादविवादों के फलस्वरूप समाज के
विभिन्न वर्ग और संप्रदाय सुधार की ओर अग्रसर हुए और बहुत शीघ्र ही
सांप्रदायिक पत्रों की बाढ़ आ गई। सैकड़ों की संख्या में विभिन्न जातीय और
वर्गीय पत्र प्रकाशित हुए और उन्होंने असंख्य जनों को वाणी दी।
आज वही पत्र हमारी इतिहासचेतना में विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा
शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो।
साहित्यिक दृष्टि से "हिंदी प्रदीप" (1877), ब्राह्मण (1883),
क्षत्रियपत्रिका (1880), आनंदकादंबिनी (1881), भारतेंदु (1882), देवनागरी
प्रचारक (1882), वैष्णव पत्रिका (पश्चात् पीयूषप्रवाह, 1883), कवि के
चित्रकार (1891), नागरी नीरद (1883), साहित्य सुधानिधि (1894), और राजनीतिक
दृष्टि से भारतमित्र (1877), उचित वक्ता (1878), सार सुधानिधि (1878),
भारतोदय (दैनिक, 1883), भारत जीवन (1884), भारतोदय (दैनिक, 1885), शुभचिंतक
(1887) और हिंदी बंगवासी (1890) विशेष महत्वपूर्ण हैं। इन पत्रों में
हमारे 19वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों
और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस
महत्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फाइलों से उद्धार नहीं कर सके। बालकृष्ण
भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानं मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास
और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने
निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास औप स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे
हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय में तो वे
अग्रणी थे ही।
तीसरा चरण : बीसवीं शताब्दी के प्रथम बीस वर्ष
बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें
बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है।
19वीं शती के पत्रकारों को भाषा-शैलीक्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना
पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी
वस्तु रखनी थी। अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे
परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में
नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ
पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर
लिया। फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक
पत्रों के क्षेत्र में पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित
"सरस्वती" (1903-1918) का नेतृत्व रहा। वस्तुत: इन बीस वर्षों में हिंदी के
मासिक पत्र एक महान् साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए। शृंखलित
उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए - जैसे उपन्यास 1901, हिंदी
नाविल 1901, उपन्यास लहरी 1902, उपन्याससागर 1903, उपन्यास कुसुमांजलि
1904, उपन्यासबहार 1907, उपन्यास प्रचार 19012। केवल कविता अथवा
समस्यापूर्ति लेकर अनेक पत्र उन्नीसवीं शतब्दी के अंतिम वर्षों में निकलने
लगे थे। वे चले रहे। समालोचना के क्षेत्र में "समालोचक" (1902) और ऐतिहासिक
शोध से संबंधित "इतिहास" (1905) का प्रकाशन भी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं।
परंतु सरस्वती ने "मिस्लेनी" () के रूप में जो आदर्श रखा था, वह अधिक
लोकप्रिय रहा और इस श्रेणी के पत्रों में उसके साथ कुछ थोड़े ही पत्रों का
नाम लिया जा सकता है, जैसे "भारतेंदु" (1905), नागरी हितैषिणी पत्रिका,
बाँकीपुर (1905), नागरीप्रचारक (1906), मिथिलामिहिर (1910) और इंदु (1909)।
"सरस्वती" और "इंदु" दोनों हमारी साहित्यचेतना के इतिहास के लिए
महत्वपूर्ण हैं और एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का
शीर्षमणि कह सकते हैं। "सरस्वती" के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद
द्विवेदी और "इंदु" के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय
सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हमारी
पत्रकारित को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ।
परंतु राजनीतिक क्षेत्र में हमारी पत्रकारिता को नेतृत्व प्राप्त नहीं
हो सका। पिछले युग की राजनीतिक पत्रकारिता का केंद्र कलकत्ता था। परंतु
कलकत्ता हिंदी प्रदेश से दूर पड़ता था और स्वयं हिंदी प्रदेश को राजनीतिक
दिशा में जागरूक नेतृत्व कुछ देर में मिला। हिंदी प्रदेश का पहला दैनिक
राजा रामपालसिंह का द्विभाषीय "हिंदुस्तान" (1883) है जो अंग्रेजी और हिंदी
में कालाकाँकर से प्रकाशित होता था। दो वर्ष बाद (1885 में), बाबू सीताराम
ने "भारतोदय" नाम से एक दैनिक पत्र कानपुर से निकालना शुरू किया। परंतु ये
दोनों पत्र दीर्घजीवी नहीं हो सके और साप्ताहिक पत्रों को ही राजनीतिक
विचारधारा का वाहन बनना पड़ा। वास्तव में उन्नीसवीं शतब्दी में कलकत्ता के
भारत मित्र, वंगवासी, सारसुधानिधि और उचित वक्ता ही हिंदी प्रदेश की
रानीतिक भावना का प्रतिनिधित्व करते थे। इनमें कदाचित् "भारतमित्र" ही सबसे
अधिक स्थायी और शक्तिशाली था। उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल और महाराष्ट्र
लोक जाग्रति के केंद्र थे और उग्र राष्ट्रीय पत्रकारिता में भी ये ही
प्रांत अग्रणी थे। हिंदी प्रदेश के पत्रकारों ने इन प्रांतों के नेतृत्व को
स्वीकार कर लिया और बहुत दिनों तक उनका स्वतंत्र राजनीतिक व्यक्तित्व
विकसित नहीं हो सका। फिर भी हम "अभ्युदय" (1905), "प्रताप" (1913),
"कर्मयोगी", "हिंदी केसरी" (1904-1908) आदि के रूप में हिंदी राजनीतिक
पत्रकारिता को कई डग आगे बढ़ाते पाते हैं। प्रथम महायुद्ध की उत्तेजना ने
एक बार फिर कई दैनिक पत्रों को जन्म दिया। कलकत्ता से "कलकत्ता समाचार",
"स्वतंत्र" और "विश्वमित्र" प्रकाशित हुए, बंबई से "वेंकटेश्वर समाचार" ने
अपना दैनिक संस्करण प्रकाशित करना आरंभ किया और दिल्ली से "विजय" निकला।
1921 में काशी से "आज" और कानपुर से "वर्तमान" प्रकाशित हुए। इस प्रकार हम
देखते हैं कि 1921 में हिंदी पत्रकारिता फिर एक बार करवटें लेती है और
राजनीतिक क्षेत्र में अपना नया जीवन आरंभ करती है। हमारे साहित्यिक पत्रों
के क्षेत्र में भी नई प्रवृत्तियों का आरंभ इसी समय से होता है। फलत:
बीसवीं शती के पहले बीस वर्षों को हम हिंदी पत्रकारिता का तीसरा चरण कह
सकते हैं।
आधुनिक युग
1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग आरंभ होता है। इस युग में
हम राष्ट्रीय और साहित्यिक चेतना को साथ साथ पल्लवित पाते हैं। इसी समय के
लगभग हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हुआ और कुछ ऐसे कृती संपादक
सामने आए जो अंग्रेजी की पत्रकारिता से पूर्णत: परिचित थे और जो हिंदी
पत्रों को अंग्रेजी, मराठी और बँगला के पत्रों के समकक्ष लाना चाहते थे।
फलत: साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए युग का आरंभ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलनों
ने हिंदी की राष्ट्रभाषा के लिए योग्यता पहली बार घोषित की ओर जैसे-जैसे
राष्ट्रीय आंदोलनों का बल बढ़ने लगा, हिंदी के पत्रकार और पत्र अधिक महत्व
पाने लगे। 1921 के बाद गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन मध्यवर्ग
तक सीमित न रहकर ग्रामीणों और श्रमिकों तक पहुंच गया और उसके इस प्रसार में
हिंदी पत्रकारिता ने महत्वपूर्ण योग दिया। सच तो यह है कि हिंदी पत्रकार
राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से
डटकर मोर्चा लिया। विदेशी सरकार ने अनेक बार नए नए कानून बनाकर
समाचारपत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया परंतु जेल, जुर्माना और
अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयाँ झेलते हुए भी हमारे पत्रकारों ने
स्वतंत्र विचार की दीपशिखा जलाए रखी।
1921 के बाद साहित्यक्षेत्र में जो पत्र आए उनमें प्रमुख हैं स्वार्थ (1922), माधुरी (1923), मर्यादा,
चाँद (1923), मनोरमा (1924), समालोचक (1924), चित्रपट (1925), कल्याण (1926), सुधा (1927), विशालभारत (1928), त्यागभूमि (1928),
हंस
(1930), गंगा (1930), विश्वमित्र (1933), रूपाभ (1938), साहित्य संदेश
(1938), कमला (1939), मधुकर (1940), जीवनसाहित्य (1940), विश्वभारती
(1942), संगम (1942), कुमार (1944), नया साहित्य (1945), पारिजात (1945),
हिमालय (1946) आदि। वास्तव में आज हमारे मासिक साहित्य की प्रौढ़ता और
विविधता में किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता। हिंदी की अनेकानेक प्रथम
श्रेणी की रचनाएँ मासिकों द्वारा ही पहले प्रकाश में आई और अनेक श्रेष्ठ
कवि और साहित्यकार पत्रकारिता से भी संबंधित रहे। आज हमारे मासिक पत्र जीवन
और साहित्य के सभी अंगों की पूर्ति करते हैं और अब विशेषज्ञता की ओर भी
ध्यान जाने लगा है। साहित्य की प्रवृत्तियों की जैसी विकासमान झलक पत्रों
में मिलती है, वैसी पुस्तकों में नहीं मिलती। वहाँ हमें साहित्य का सक्रिय,
सप्राण, गतिशील रूप प्राप्त होता है।
राजनीतिक क्षेत्र में इस युग में जिन पत्रपत्रिकाओं की धूम रही वे हैं -
कर्मवीर (1924), सैनिक (1924), स्वदेश (1921), श्रीकृष्णसंदेश (1925),
हिंदूपंच (1926), स्वतंत्र भारत (1928), जागरण (1929), हिंदी मिलाप (1929),
सचित्र दरबार (1930), स्वराज्य (1931), नवयुग (1932), हरिजन सेवक (1932),
विश्वबंधु (1933), नवशक्ति (1934), योगी (1934), हिंदू (1936), देशदूत
(1938), राष्ट्रीयता (1938), संघर्ष (1938), चिनगारी (1938), नवज्योति
(1938), संगम (1940), जनयुग (1942), रामराज्य (1942), संसार (1943),
लोकवाणी (1942), सावधान (1942), हुंकार (1942), और सन्मार्ग
(1943),जनवार्ता (१९७२) इनमें से अधिकांश साप्ताहिक हैं, परंतु जनमन के
निर्माण में उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। जहाँ तक पत्र कला का संबंध है
वहाँ तक हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि तीसरे और चौथे युग के पत्रों में
धरती और आकाश का अंतर है। आज पत्रसंपादन वास्तव में उच्च कोटि की कला है।
राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में "आज" (1921) और उसके संपादक स्वर्गीय
बाबूराव विष्णु पराड़कर का लगभग वही स्थान है जो साहित्यिक पत्रकारिता के
क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्राप्त है। सच तो यह है कि
"आज" ने पत्रकला के क्षेत्र में एक महान् संस्था का काम किया है और उसने
हिंदी को बीसियों पत्रसंपादक और पत्रकार दिए हैं।
आधुनिक साहित्य के अनेक अंगों की भाँति हमारी पत्रकारिता भी नई कोटि की
है और उसमें भी मुख्यत: हमारे मध्यवित्त वर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक,
साहित्यिक औ राजनीतिक हलचलों का प्रतिबिंब भास्वर है। वास्तव में पिछले 140
वर्षों का सच्चा इतिहास हमारी पत्रपत्रिकाओं से ही संकलित हो सकता है।
बँगला के "कलेर कथा" ग्रंथ में पत्रों के अवतरणों के आधार पर बंगाल के
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यवित्तीय जीवन के आकलन का प्रयत्न हुआ है। हिंदी
में भी ऐसा प्रयत्न वांछनीय है। एक तरह से उन्नीसवीं शती में साहित्य कही
जा सकनेवाली चीज बहुत कम है और जो है भी, वह पत्रों के पृष्ठों में ही
पहले-पहल सामने आई है। भाषाशैली के निर्माण और जातीय शैली के विकास में
पत्रों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है, परंतु बीसवीं शती के पहले दो
दशकों के अंत तक मासिक पत्र और साप्ताहिक पत्र ही हमारी साहित्यिक
प्रवृत्तियों को जन्म देते और विकसित करते रहे हैं। द्विवेदी युग के
साहित्य को हम "सरस्वती" और "इंदु" में जिस प्रयोगात्मक रूप में देखते हैं,
वही उस साहित्य का असली रूप है। 1921 ई. के बाद साहित्य बहुत कुछ
पत्रपत्रिकाओं से स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा होने लगा, परंतु फिर भी
विशिष्ट साहित्यिक आंदोलनों के लिए हमें मासिक पत्रों के पृष्ठ ही उलटने
पड़ते हैं। राजनीतिक चेतना के लिए तो पत्रपत्रिकाएँ हैं ही। वस्तुत:
पत्रपत्रिकाएँ जितनी बड़ी जनसंख्या को छूती हैं, विशुद्ध साहित्य का उतनी
बड़ी जनसंख्या तक पहुँचना असंभव है।