आपका-अख्तर खान

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06 नवंबर 2013

क्या हो तुम. !! समझ नहीं पता हूँ...

क्या हो तुम. !!
समझ नहीं पता हूँ...
पर तुम्हे सामने देख जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाता हूँ....
कभी मेरी कविताओं में...
आंसुओं के ढलने का माध्यम बन जाती हो...
कभी अपने वजूद से झाँसी की रानी को भी पीछे छोड़ जाती हो...
नित पावन करती रहती हो...
मेरा घर आँगन तुलसी के दिए सा...
मेरे घर में तुम आई हो सिया सी...
साल आये और चले गए...;
कितने उम्र के पड़ाव गए...
सोचता हूँ क्या उपमा दूँ...
बहुत फीका लगता हे..;
पूर्णिमा का चाँद ..
और...
सुर्ख लाल गुलाब.;.
कोई समानता कहानियां कर सकता हे , भला....
तुम्हारी पवित्रता के सामने गंगा...
प्रेम में पतंगा...
बहुत पीछे छुट जाते हे...
स्नेह के अगाध सागर में...
अनगिनत सागर विलीन हे जाते हे...
कैसे करती हो....
सारे काम सही-सटीक.
इतनी लीन होकर...
वहीँ में एक कविता के लिए. ...
सो पन्ने पढता हूँ...
सच कहूँ तो ...
मेरी कल्पनाओं के आयाम हो तुम...
मेरी उड़ानों का आखिरी धरातल हो तुम....
पर जाने क्यों...
तुम्हारे सामने स्वीकार नहीं पता हूँ...
जीत जाती हो तुम...
और में हर बार हार जाता हूँ..!!
Deepika sharma joshi

1 टिप्पणी:

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