आपका-अख्तर खान

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09 मई 2013

ज़रा ठहरो अभी इक साँस पुरानी बची है

ज़रा ठहरो अभी इक साँस पुरानी बची है
तिरे आने कि इक उम्मीद भुलानी बची है ...

गली के छोर पे बचपन ठिठरा सा खड़ा है
दिखाई दे रहा बाक़ी कहानी बची है ...

हमें तिरी हर चाल मगर कौन बोले
शक्ल पर और कितनी शक्ल लगानी बची है ...

उम्र बढ़ती रही पर तिफ्ल-मिज़ाजी वही है
लहू कि गर्मजोशी और जवानी बची है ...

फलक पर चाँदनी अब देख नहीं पाता अकेले
‘भरत’ ये उम्र कितनी और बितानी बची है ...

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