आपका-अख्तर खान

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07 मई 2013

हमने उस बोसा-ए-दिल से

हमने उस बोसा-ए-दिल से
कैसे था रूह को भिगो डाला
तुमने सजाई मांग में बूंदे
फूल का रंग भी चटख आया

ख्वाइश की राह पर चले कब थे
हमने रिश्ते को, पोसा, न पाला
स्याह रात को जगे अक्सर
कि हिचकी को पास आना था।

माँ-सी आरज़ू को मुठ्ठी में
लिये नींद से ना जागा था
ऐसे ख़्वाबों के कैसे सज्दे में
कौन सहीफ़े लिए आया था।
कि अल्फाज़ ने तपिश बन कर
पीर पयंबरी को पाया था।

आओ ! इस शादमाँ पल में
चाँद को फिर-फिर बुला लाएँ
कैसे दहकाँ के खेत पसीने में
रह-रह फसल को उगा आएँ।

यही ज़िन्दगी का हासिल है
यही मोहब्बतों का हामिल है!

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