"बाजार
के लिए वेदना भी बिकाऊ माल है ...यह व्यवस्था वेदना का केवल अनुवाद कर के
उसे बेचती है , समाधान नहीं करती . फिल्मकार अपनी भाषा और समझ से उसका
सेल्यूलोइड पर अनुवाद करता है और कोई सत्यजित रे "पाथेर पांचाली" जैसा
बिकाऊ माल तैयार कर देता है ....कवि आपकी वेदना का अनुवाद कविता में करता
है ...पत्रकार आपकी वेदना का पत्रकारीय अनुवाद कर उसे बिकाऊ बनाता है
...अर्थशास्त्री वेदना का अर्थशास्त्र में अनुवाद करता है और कोई मालदार
अमर्त्य सेन गरीबी की वेदना की बिकाऊ व्याख्या देता है ...वकील आपकी वेदना
का अनुवाद कर यह कि ,यह कि, यह कि या That...That...That...लिख कर पिटीशन
/हलफनामा बनाता है ...जज आपकी वेदना का अनुवाद फैसले में करता है ...पेशकार
घूस देने वाले वादकारी की वेदना का अनुवाद "डेट" दे कर करता है ...डॉक्टर
आपकी वेदना का अनुवाद सीटी स्कैन/कार्डियोग्राम /पैथोलोजी रिपोर्ट आदि में
करता है ...समाधान कोई नहीं करता ." ----राजीव चतुर्वेदी
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