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19 मई 2013

"सवा अरब की आबादी में प्यार की कविताए कहते लोग सुनो तुम

( "कविता बच्चियों पर कम और बूढीयों पर भूल चूक से ही लिखी जाती हैं. अधिकाँश कविता युवतियों पर ही लिखी जाती हैं. --- तो क्या कविता केवल प्रणय निवेदन की गुटुर-गूं है ? वह बातें और शैली जो सामान्य वार्तालाप में छिनरफंद ही कही जाती हैं, कविताओं में सराही क्यों जाती हैं ? विडंबना है, सवा अरब की आबादी वाले देश में अधिकाँश कवितायें प्यार पर लिखी जा रही हैं वक्त की मार पर नहीं . अगर मीरा महान थी तो लोग अपनी बेटी, बहन,पत्नी या मां को मीरा के रूप में क्यों नहीं देखना चाहते ? जाहिर है प्रणय आखेट के लिए दूसरों के घर में मीरा तलाशी जा रही है अपने घर में नहीं. पुरुष प्रधान समाज में शातिर शब्दों के चुगे को कविता समझ कर कहीं कहीं हम सामूहिक चरित्र हीनता की ओर नहीं बढ़ रहे ?" ----राजीव चतुर्वेदी )

"सवा अरब की आबादी में प्यार की कविताए कहते लोग सुनो तुम
सच्चाई से आँख मूँद कर बेतुक से हेतुक साध रहे
हर कायर शब्दों के शिल्पकार को कवि न समझो
ध्यान रहे धृतराष्ट्र यहाँ था, सौ बच्चों को नाम दे गया
देखो, नेताओं के भाषण के धारें समय के शिलालेख पर पैनी होती जाती हैं
और कतारें राशन की गलियाँ लांघ
सड़क की पैमाइश करती हैं असली भारत की
जहां हमारे देश की सूरत और घिनौनी होती जाती है
भूखी गरिमा सहमी सी मर्यादा में कैद
तुम्हारी नज़रों के हर खोट भांप
महगाई की अब चोट से घायल झीने से कपड़ों में कातर कविता सी दिखती है
कामुकता की करतूतों को जो प्रेम कहा करते हैं
उनसे पूछो सच बतलाना
घर की दहलीजों के भीतर सहमी सी बेटी पिता की आँखों में क्या- क्या पढ़ती है ?
वात्सल्य का शल्य परीक्षण कर डालोगे,
कलम तुम्हारी कविता लिख कर काँप उठेगी
शब्दों की अंगड़ाई में सच की साँसें सहमेंगी फिर हांफ उठेंगी
बहन सहम के क्यों ठहरी हैं दालानों में ?
भाई, ...भाई के मित्र निगाहों से किस रिश्ते की पैमाइश करते हैं
फब्तियों के वह झोंके और झपट्टा हर निगाह का,
... एक दुपट्टा जाने क्या क्या सह जाता है
और गाँव का वह जो गुरु है गिद्ध दृष्टि उसकी भी देखो
पढ़ पाओ तो मुझे बतान--- वात्सल्य था या थी करुणा या श्रृंगार था
कामुकता को कविता जो समझे बैठे हैं मटुकनाथ से हर अनाथ तक
हर भूखा वक्तव्य काव्य की अभिलाषा में बाट जोहता
शहरों के अब ठाठ देख कर खौल रहा है
और सभ्यता के शब्दों की पराक्रमी पैमाइश करते
छल के कोष शब्दकोषों की नीलामी करते भी देखो तो कविता दिखती है
अपनी माँ का दूध न पी पा रहे गाय के बछड़े की निगाहों में भी देखो झाँक कर
कविता में वात्सल्य गुमशुदा है वर्षों से
कविता में सौन्दर्य था तो फिर क्यों गुमनाम हो गया
गौहरबानो को देखा था कभी शिवा ने
वह बातें क्यों अब याद नहीं आती हैं हमको
कामुकता को आकार दे रहे शब्दों के संयोजन को संकेतों से कहने वालो
सहमी है बुलबुल डालों पर और गिद्ध वहीं बैठा है
सहमी है बेटी घर पर अब पिता जहां लेटा है
गाँव के बच्चे शहरों से सहमे हैं
सिद्धो के शहरों में गिद्धों के वंशनाश के क्या माने ?
पर गौरईया पर गौर करो तो कविता हो
सहवासों, बनवासों, उपवासों में उलझा आद्यात्म यहाँ
यमदाग्नी से जठराग्नी तक की बात करो तो कविता हो
कामुकता को कविता कहने वालो
सवा अरब की आबादी में
क्या तुमको यह अच्छा लगता है ?" ------राजीव चतुर्वेदी

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