आपका-अख्तर खान

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18 मई 2013

तेरा गम जब भी चखता हूँ, कड़वा सा हो जाता हूँ...

तेरा गम जब भी चखता हूँ, कड़वा सा हो जाता हूँ....
धीरे से अम्मा कहता हूँ, मैं मीठा हो जाता हूँ...

अँधा एक पपीहा देखो, रोज़ तरसता सावन को...
न मर जायें वो उम्मीदें , रोज़ वहाँ रो आता हूँ...

ग़ज़ल बगल मे बाँध के अपने, तेरी राह गुज़रता हूँ...
जाता हूँ बाजार, बेचने, रोज़ वहीं खो आता हूँ...

वहाँ जहाँ पर एक भिखारी, मरा पड़ा था दो दिन से...
चिल्लर थोड़े फेंक के अपने, पाप ज़रा धो आता हूँ...

जब लगता है फसल तुम्हारी, यादों की हो गयी खराब...
दिल को आँखों से नम करके, बीज ज़रा बो आता हूँ...

एक कटोरी याद से तेरी, खाकर फिर दो ग़ज़ल 'करिश'...
और आँख का पानी पीकर, मैं भूखा सो जाता हूँ....

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