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26 मई 2013

एक किसान की लड़ाई से शुरू हुआ और 1500 करोड़ का बन गया 'नक्सलवाद'!


एक बहुत पुरानी कहावत है -''बुढ़िया के मरने का गम नहीं, गम तो इस बात का है, मौत ने घर देख लिया। इसी तर्ज पर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र सीमा पर अवस्थित दो जिलों में नक्सली पदचाप सुनाई दी है। इनमें से एक बालाघाट काफी 
अरसे से नक्सवाद के जहर से ग्रसित है, तो अब भगवान शिव की नगरी के नाम से पहचाने जाने वाले सिवनी जिले में लाल गलियारे की आमद की खबरें लोगों की नींद में खलल डाल रही है। 6जून को वन विभाग के बेहरई डिपो में नक्सली पर्चा मिलने की खबरों ने प्रशासन की पेशानी पर पसीने की बूंदे छलका दी हैं। यद्यपि पुलिस द्वारा इस तरह की घटना की पुष्टि नहीं की जा रही है, पर स्थानीय लोगों द्वारा इसकी पुष्टि की जा रही है।
 
नक्सलियों के निशाने पर अमूमन राजस्व, पुलिस और वन विभाग के कर्मचारी ही हुआ करते हैं, इसलिए सिवनी में भी इन विभागों के लोगों को सतर्क रहने की आवश्यक्ता है। अभी हाल ही में सिवनी सहित नौ जिलों को केंद्र सरकार द्वारा नक्सल प्रभावित जिलों की फेहरिस्त में स्थान देकर सतर्कता बरतना आरंभ ही किया है कि नक्सली पदचाप ने लोगों को दहला दिया है।
 
अस्सी के दशक में ही सुनाई दे गई थी दस्तक
 
अस्सी के दशक में मध्य संयुक्त मध्य प्रदेश में नक्सलवाद की आहट सुनाई दी थी। आंध्र से जंगलों के रास्ते नक्सली लाल गलियारा संयुक्त मध्य प्रदेश में प्रवेश कर गया था। नक्सलवादियों ने संयुक्त मध्य प्रदेश के उपरांत प्रथक हुए छत्तीगढ़ को अपनी कर्मस्थली बनाना उचित समझा। कहा जाता है कि जब भी आंध्र प्रदेश में नक्सलवादियों के खिलाफ अभियान तेज किया जाता है वे भागकर छत्तीगढ़ पहुंचते हैं। नक्सलवादियों को मध्य प्रदेश के बालाघाट और मण्डला जिले शरणस्थली के बतौर मुफीद प्रतीत होते रहे हैं।
 
उस दौरान भी परिवहन मंत्री का रेत डाला था गला
 
नक्सलियों के हौसले मध्य प्रदेश में इस कदर बुलंद रहे हैं कि मध्य प्रदेश के तत्कालीन परिवहन मंत्री लिखी राम कांवरे को उन्हीं के आवास पर नक्सलियों ने गला रेतकर मार डाला था। कभी अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक पर हमला होता है तो कभी पुलिस पार्टी को एक्बु्रश लगाकर उड़ा दिया जाता है। बालाघाट में नक्सलवाद के प्रभाव को देखकर मध्य प्रदेश सरकार द्वारा पहले उप महानिरीक्षक पुलिस बाद में महानिरीक्षक पुलिस का कार्यालय संभागीय मुख्यालय जबलपुर में स्थापित किया गया। बाद में जब जबलपुर से बालाघाट की सड़क मार्ग से दूरी लगभग ढाई सौ किलोमीटर और मण्डला की दूरी सवा सौ किलोमीटर के करीब पाई गई जिससे काम में व्यवहारिक अड़चने सामने आईं तब इसको संस्कारधानी जबलपुर से उठाकर बालाघाट में ही आईजी का कार्यालय बना दिया गया।
 
बालाघाट में आई जी के पद पर सी.व्ही.मुनिराजू लंबे समय तक पदस्थ रहे। मुनिराजू सिवनी और बालाघाट की फिजां को बेहतर इसलिए जानते थे, क्योंकि बावरी विध्वंस के तत्काल बाद ही उन्हें सिवनी में पुलिस अधीक्षक बनाया गया था। कहा जाता है कि उनके पहले 1992तक पदस्थ रहे पुलिस अधीक्षक राजीव श्रीवास्तव (वर्तमान में पुलिस महानिरीक्षक, छत्तीगढ़) ने सिवनी के नक्लस प्रभावित संभावित क्षेत्र केवलारी, कान्हीवाड़ा, पाण्डिया छपरा आदि में भेष बदलकर साईकल से यात्रा कर जमीनी हकीकत की जानकारी उच्चाधिकारियों को भोपाल भेजी थी।
 
46 साल का हो गया नक्सलवाद
वैसे देखा जाए तो 1967में पश्चिम बंगाल के नक्सलवाडी से आरंभ हुआ नक्सलवाद आज 46 साल की उम्र को पार चुका है। आजाद भारत में विडम्बना तो देखिए कि 45साल में केंद्र और सूबों में न जाने कितनी सरकारें आईं और गईं पर किसी ने भी इस बीमारी को समूल खत्म करने की जहमत नहीं उठाई। उस दौरान चारू मजूमदार और कानू सन्याल ने सत्ता के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन की नींव रखी थी। इस आंदोलन का नेतृत्व करने वाले चारू मजूमदार और जंगल संथाल के अवसान के साथ ही यह आंदोलन एसे लोगों के हाथों में चला गया जिनके लिए निहित स्वार्थ सर्वोपरि थे, परिणाम स्वरूप यह आंदोलन अपने पथ से भटक गया। कोई भी केंद्रीय नेतृत्व न होने के कारण यह आंदोलन अराजकता का शिकार हो गया।

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