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05 अप्रैल 2013

''पेड़ से गि‍रती एक तन्‍हा पत्‍ती,

Rashmi Sharma
''पेड़ से गि‍रती एक तन्‍हा पत्‍ती,
होती है बेहद तन्‍हा
डाल भी सोचता है,
इसे कब कि‍या मैंने खुद से अलग
आखि‍र कि‍सकी चाह में हो जाती है
एक पत्‍ती बेहद तन्‍हा''

ये तब की बात है जब मेरी उम्र सात-आठ बरस की रही होगी। यही मौसम.....हल्‍की सी गर्मी और पेड़ों से गि‍रते पत्‍ते......यानी पतझड़
घर के ठीक बाहर एक वि‍शाल पीपल का पेड़ हुआ करता था। ठीक दोपहर के बाद का वक्‍त.....जब मां घर के काम नि‍पटा के सो रही होतीं, मैं चुपके से बाहर नि‍कल जाती......

सूने से वि‍शाल मैदान में पेड़ के नीचे खड़ी हो जाती......उपर से एक-एक कर झड़ती रहती पत्‍ति‍यां और मैं हर गि‍रते पत्‍ते को अपने हाथों में समेटने की कोशि‍श करती। चाहती कि‍ एक भी पत्‍ता जमीं पर न गि‍रे........जाने क्‍या चलता रहता था दि‍माग में

धीरे-धीरे मेरे इस शौक को मुहल्‍ले के बच्‍चों ने भी अपना खेल बना लि‍या कि ज्‍यादा पत्‍ति‍यां कौन जमा करता है.....

मगर उसके बाद वाला काम जो मैं करती थी......शायद कोई नहीं करता। मैं सारे पत्‍तों को सहेजकर अपने तकि‍ए के नीचे रखकर सो जाती। अगले दि‍न गद़दे की नीचे..........

जब मां की नजर पड़ती, तो सारे पत्‍ते उठाकर बाहर फेंक देती....और मेरी आंखों में आंसू......दादी भी कहती.....पता नहीं इस लड़की को क्‍या-क्‍या जमा करने का शौक है......

खि‍ड़की के पास खड़ी मैं यही नजारा देख रही थी....हालांकि वो पीपल का पेड़ नहीं था, मगर वैसे ही झड़ रहे थे पत्‍ते.........अब कोई नहीं समेटता इन्‍हें.....

................. रश्‍मि शर्मा

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