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27 मार्च 2013

प्रेम के रंग में रंगी है राधा और श्रीकृष्ण की होली



भक्तिकाल और रीतिकाल में होली व वसंत ऋतु का विशिष्ट महत्व रहा है। चाहे वह राधा-कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली हो या नायक-नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीत की होली हो। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीरा, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानन्द आदि सभी कवियों का यह प्रिय विषय रहा है। होली के रंगों के साथ साथ प्रेम के रंग में रंग जाने की चाह ईश्वर को भी है तो भक्त को भी है, प्रेमी को भी है तो प्रेमिका को भी।
मीराबाई ने इस पद में कहा है -
रंग भरी राग भरी रागसूं भरी री।
होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी, री।।
उड़त गुलाल लाल बादला रो रंग लाल।
पिचकाँ उडावां रंग रंग री झरी, री।।
चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री।
मीरा दासी गिरधर नागर, चेरी चरण धरी री।।

इस पद में मीरा ने अपनी सखी को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि- हे सखी। मैंने अपने प्रियतम कृष्ण के साथ रंग से भरी, प्रेम के रंगों से सराबोर होली खेली। होली पर इतना गुलाल उड़ा कि जिसके कारण बादलों का रंग भी लाल हो गया। रंगों से भरी पिचकारियों से रंग की धाराएं बह चलीं। मीरा कहती हैं कि अपने प्रिय से होली खेलने के लिये मैंने मटकी में चोवा, चन्दन, अरगजा, केसर आदि भरकर रखे हुये हैं। मैं तो उन्हीं गिरधर नागर की दासी हूँ और उन्हीं के चरणों में मेरा सर्वस्व समर्पित है।

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