सांझ का समय....रेत के टीलों के बीच त्रिकुट पहाड़ी पर दूर से दुर्ग... ऐसा जैसे पहाड़ पर लंगर डाले खड़ा हो कोई जहाज। घाघरानुमा परकोटे किले की दीवारों पर सांझ के सूरज की ढलती किरणें सब कुछ जैसे सुनहरा कर रही थी। लगने लगा, जैसे जादू सा कुछ हो रहा है। किला हो गया सच में सोनगढ़। माने सोने से बना हुआ। पीत पाषाणों से निर्मित किले की कल्पना नहीं आंखों का सच था। मजे की बात यह है कि कल्पनालोक से नजर आने वाले इस किले में लोग रहते हैं, काम करते हैं और हां, ये इस किले का उनका जीवन्त इतिहास है।
स्थानीय गाइड बताने लगता है, "यही वह दुर्ग है जिसने 11 वीं सदी से 18 वीं सदी तक अनेकानेक उतार-चढ़ाव देखते गौरी, खिलजी, फिरोजशाह तुगलक और ऐसे ही दूसरे मुगलों के भीषण हमलों को लगातार झेला है। कभी सिंधु, मिस्र, इराक, कांधार और मुलतान आदि देशों का व्यापारिक कारवां देश के अन्य भागों को यहीं से जाता था। कहते हैं 1661 से 1708 ई. के बीच यह दुर्ग नगर समृद्धि के चरम शिखर पर पहुंच गया। व्यापारियों ने यहां स्थापत्य कला में बेजोड़ हवेलियों का निर्माण किया तो हिन्दू, जैन धर्म के मंदिरों की आस्था का भी यह प्रमुख केन्द्र बना।"
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