नई दिल्ली. दिल्ली गैंगरेप पीड़ित छात्रा का दोस्त पहली बार
सामने आया। शुक्रवार को इस एकमात्र चश्मदीद ने समाचार चैनल जी न्यूज़ के
जरिए सिलसिलेवार बताया कि 16 दिसंबर की रात क्या हुआ था। उसी की जुबानी इस
कहानी में हमने यह ध्यान रखा है कि पीड़िता की पहचान जाहिर न हो और पीड़ित
पक्ष और अदालत में चल रहे मुकदमे पर कोई नकारात्मक असर न पड़े। हम इसे
गंभीरता के साथ इसलिए दे रहे हैं क्योंकि देश के लिए यह जानना जरूरी है कि
किन लोगों की लापरवाही के चलते पीड़िता को समय पर मदद नहीं मिली।
‘बस में सवार छह लोगों ने हमें बेरहमी से मारा। बस के शीशों पर काली
फिल्म चढ़ी थी और पर्दे लगे थे। लाइटें भी बंद थीं। हम एक-दूसरे को बचाने
की कोशिश कर रहे थे। शोर भी मचाया। मेरे दोस्त ने पुलिस को फोन करने का
प्रयास भी किया। लेकिन गुंडों ने उनका मोबाइल छीन लिया। मेरे सिर पर रॉड
मारी गई। फिर मैं बेहोश हो गया। होश आया तो देखा-वे बस को यहां से वहां
दौड़ा रहे हैं। कोई दो-ढाई घंटे तक ऐसा चलता रहा। उसके बाद महिपालपुर
फ्लाईओवर के नीचे हम दोनों को फेंक दिया। वे मेरी दोस्त को कुचलना भी चाहते
थे।
लेकिन किसी तरह मैंने उन्हें खींचकर बस के नीचे आने से बचाया। हमारे
पास कपड़े नहीं थे। शरीर से खून बह रहा था। हम इंतजार करते रहे कि कोई तो
मदद करेगा। कई गाड़ियां पास से गुजरीं, मैंने हाथ हिलाकर रुकने को कहा..
ऑटो, कार वाले स्पीड स्लो करते लेकिन रुका कोई नहीं। मैं चिल्लाता रहा कि
कोई कपड़े तो दे दो। लेकिन किसी ने कपड़े नहीं दिए। 20-25 मिनट तक हम मदद
के लिए लोगों को पुकारते रहे। 15-20 लोग वहां खड़े थे। कोई कह रहा था कि
लूट का मामला होगा। डेढ़-दो घंटे हम वहीं पड़े रहे।
वे चाहते तो पीसीआर, एम्बुलेंस का इंतजार करने के बजाय हमें अस्पताल
ले जा सकते थे। फिर किसी ने फोन किया। तीन पीसीआर वैन आईं। लेकिन पुलिस
वाले आपस में ही उलझे रहे। कोई आधा घंटे तक वे बहस करते रहे कि ये किस थाने
का केस है? इसके बाद उन्होंने हमें सफदरगंज अस्पताल पहुंचाया। महिपालपुर
से पास के अस्पताल नहीं ले गए। पहले एम्स ले जाने वाले थे। इसमें ढाई घंटे
लग गए। वहां भी किसी ने मदद नहीं की। किसी ने कंबल तक नहीं दिया। सफाईवाले
से मदद मांगी। कहा पर्दा ही दे दो। ठंड लग रही है। लेकिन किसी ने नहीं
दिया।
मेरे हाथ-पैर से खून बह रहा था। मैं हाथ भी नहीं उठा पा रहा था। पैर
में फ्रेक्चर था। लेकिन घटना की रात से अगले तीन-चार दिन थाने में ही रहा।
मैंने भी पहले सोचा कि मामले को छिपाया जाए। मैंने सबसे कहा एक्सीडेंट हुआ
है। घटना वाली रात को ही मैं पुलिस थाने आ गया था। वहां से मैंने दोस्तों
को फोन लगाकर एक्सीडेंट की ही जानकारी दी। यह केस बहुत बड़ा हो गया था। इस
वजह से शिकायत दर्ज हो पाई। एसडीएम के सामने बयान होना था। सभी ने कहा कि
मैं मौजूद रहूंगा तो दोस्त कान्फिडेंट रहेगी।
मैं हॉस्पिटल पहुंचा। वह वेंटीलेटर पर थी। ऑक्सीजन मास्क लगा था।
बोलने के लिए मास्क हटाना पड़ता था। फिर भी उन्होंने बयान दर्ज कराया।
तीन-चार पन्ने के स्टेटमेंट पर सिग्नेचर भी किए। उस दौरान बहुत सी ऐसी
बातें भी सामने आईं जो मुझे भी पता नहीं थी। इतनी क्रूरता तो जानवर भी नहीं
कर सकता। वह भी शिकार को गला दबाकर मार डालता है। यहां तो जिंदा इंसान के
साथ ऐसा किया कि मैं घटना के बारे में कह भी नहीं सकता। अगले दिन पता चला
कि एसडीएम ने पुलिस पर दबाव डालने का बयान दिया है। जबकि वह सही स्टेटमेंट
था। मेरी दोस्त की कोशिश बेकार गई।
मेडिसिन देने का समय हो गया था, लेकिन वह डॉक्टरों के टोकने के बावजूद
बयान देती रही थीं। मेरी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। मैं सो भी नहीं पा
रहा था। जिनके साथ आप रहते हैं, आपकी दोस्त हैं, तो उसकी तस्वीर आपके सामने
आती है। आप अपने आपको ब्लेम करते हो। आप गए ही क्यों? वही बस क्यों ली? ये
क्यों नहीं किया? दो हफ्ते तक तो मैं बात भी नहीं कर पा रहा था। कोई कुछ
पूछता भी था तो इरिटेशन होता था। लोग पूछते हैं कि आपने जान बचाने की सोची
क्या? मैंने जवाब दिया-नहीं। ऐसा तो जानवर भी नहीं सोचता होगा। आपका दोस्त
मुश्किल हालात में है तो उसे छोड़कर भागने की सोची ही नहीं जा सकती। ऐसा
करता तो आज मैं पागल हो जाता। मैं जी भी नहीं पाता। होश रहने तक कोशिश की।
कम से कम मुझे इस बात का खेद नहीं है कि मैंने कोशिश नहीं की। लेकिन सोचता
हूं कि काश मैं बचा पाता।
buddhi ne aage sochne se javaab de diya hai...koi shabd nahi hain ..santvna ke liye bhi dumb ho gai hai jubaan...dukhdaaee..
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