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29 अक्तूबर 2012

कतरूसी नारायण देवताओं के दादा, तो हिडिंबा देवताओं की हैं दादी


कुल्लू.  दशहरा उत्सव का प्राण कहे जाने वाले जिले के देवी-देवताओं में भी रिश्तेदारी प्रथा है। लगघाटी के कतरूसी नारायण को देवताओं का 'दादा' कहा जाता है वे दशहरा उत्सव में शरीक नहीं होते हैं जबकि मनाली की हिडिंबा देवताओं की 'दादी' हैं। इनका स्थान दशहरे में काफी महत्व रखता है।
शिवजी का परिवार भी दशहरा में एक स्थान पर मौजूद रहता है। इसमें खराहल घाटी का बिजली महादेव, मणिकर्ण चौंग की माता पार्वती और ऊझी घाटी के घुड़दौड़ का देवता गणपति और उनका भाई कार्तिक स्वामी एक ही स्थान पर रहते हैं।
देवता गणेश के कारदार प्रकाश ठाकुर कहते हैं शिवजी का परिवार साथ-साथ रहता है। दशहरा उत्सव में विश्व का अनूठा देव संगम होता है। यहां पौराणिक देवी देवताओं, ऋषि-मुनि और नागों के रथ आते हैं। ऋषि-मुनियों ने यहां की धरा में जप-तप किया है।
मनाली से मानव सृष्टि की उत्पत्ति मानी जाती है। महॢष वेदव्यास ने व्यास कुंड के स्थान पर संसार के सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद की ऋचाओं को संकलित किया है। बंजार के श्रृंगा ऋषि को राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ का गौरव है। मलाणा में देवता जमलू की ऐसी सत्ता है, जो विश्व में सबसे प्राचीनतम है। यहां सिर्फ देव कचहरी के माध्यम से ही निर्णय होते हैं।
देव संस्कृति के लिहाज से कुल्लू अपने आप में अनूठा है और दशहरा उत्सव में सभी देवताओं के एक साथ दर्शन होते हैं।

इसकी महिमा सबसे ज्यादा
रथ यात्रा के लिए अधिष्ठाता रघुनाथ को तब तक नहीं निकाला जाता है जब तक कि मनाली की हिडिंबा का रथ रघुनाथनगरी नहीं पहुंचता है। रामशिला में हिडिंबा के पहुंचने पर राजमहल से उसे लाने के लिए जाते हैं। माता हिडिंबा के कारदार तीर्थ राम ने बताया कि हिडिंबा का दशहरा में अपना महत्व है। दशहरे का आगाज भले ही रथ यात्रा के साथ शुरु होता है लेकिन जब तक हिडिंबा का आगमन नहीं होता है तब तक रघुनाथ को बाहर नहीं निकाला जाता है।
यहां मिलती है रथ यात्रा को हरी झंडी
भेखली की माता जगरनाथी हालांकि दशहरे उत्सव में शरीक नहीं होती हैं लेकिन उसके बगैर रथ यात्रा नहीं होती है। मान्यता है कि शिवजी के शाप के कारण धूप के समय माता देवालय से बाहर नहीं निकलती है। सूर्यास्त होने के बाद माता जब मंदिर से बाहर निकलती हैं तो रथ यात्रा के लिए भी हरी झंडी मिल जाती है। इसके लिए जगरनाथी माता के रथ को अपने देवालय से करीब 500 मीटर दूर पहाड़ी पर लाया जाता है। उसके बाद रथ यात्रा पूरे विधिविधान से शुरू हो जाती है।

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