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26 अगस्त 2012

जानिए एक ऐसे गांव की कहानी, जहां नीम काटना है, गाय काटने के समान




अजमेर.अरावली की गोद में एक ऐसा गांव है जहां नीम का पेड़ काटना गाय काटने के समान समझा जाता है। पिछली एक शताब्दी से इस गांव में नीम के पेड़ पर कुल्हाड़ी नहीं चली, ऐसा इस गांव के लोगों का दावा है। शायद यही वजह है कि आज इस अकेले गांव में 25 हजार से अधिक नीम के पेड़ हैं।

अजमेर-बीकानेर हाईवे से डेढ़ किलोमीटर दूर अरावली की गोद में बसे पद्मपुरा गांव को नीम वाला गांव कहा जाने लगा है। कुछ लोग इसे नीम नारायण का धाम भी कहते हैं। गांव की सामाजिक पंचायत के नियमानुसार यहां नीम काटने पर कड़े दंड व जुर्माने का प्रावधान है मगर किसी को याद नहीं आता कि कभी ऐसे जुर्माने की नौबत आई हो।

छह हजार बीघा राजस्व क्षेत्र के पद्मपुरा गांव के लोगों की नीम के प्रति आस्था ने अब इसे नीम वाले गांव के रूप में पहचान दे दी है। गांव के लोगों का दावा है कि देश ही नहीं एशिया में ऐसा एकमात्र स्थान है जहां छोटे से क्षेत्र में 25 हजार से ज्यादा नीम के वृक्ष मौजूद हैं।

गुर्जर बाहुल्य इस गांव में कमोबेश आठ दशक से भी अधिक समय नीम फूल-पते व छाल भले ही हाथ से तोड़ कर उपयोग में ली जाती रही है लेकिन काटने पर पूरी तरह मनाही है। डेढ़ हजार की आबादी वाला इस गांव में नीम के पेड़ों के चलती जहां दूर तक हरियाली पसरी है वहीं इसके वातावरण में भी इसकी महक पूरी तरह फैली है।

गांव में नीम के वृक्ष के प्रति लगाव लोगों की इस बात से आसानी से लगाया जा सकता है कि जब ‘भास्कर’ के प्रतिनिधि वहां पहुंचे तो जानकारी देने से पहले उन्होंने इस शंका का समाधान चाहा कि खबर प्रकाशित होने के बाद गांव से नीम के पेड़ काट तो नहीं दिए जाएंगे। नीम तो नारायण का दर्जा इस गांव में मिला हुआ है।

चाचियावास ग्राम पंचायत के इस गांव के बुजुर्ग संग्राम गुर्जर तथा श्रीराम गुर्जर का कहना है कि गांव में बरसों से नीम के काटने पर जुर्माने की व्यवस्था है। जुर्माना गांव वाले जाजम पर बैठकर तय कर दें वो तो भुगतना ही पड़ेगा। जुर्माने का डर कहो या नीम के प्रति अगाध आस्था गांव में ये हालात कभी उत्पन्न नहीं हुए कि किसी ने नीम को काटा और उसके खिलाफ जुर्माना किया गया हो।

नीम का यहां पर उपयोग केवल औषधीय ही होता आ रहा है। लोग फोड़े-फुंसी, पेट दर्द, चोट लगने, बाय (बादी), सिर दर्द या अन्य रोगों के समाधान के लिए नीम को औषधि के रूप में काम लेते आए हैं। इसके लिए नीम के पते, फूल, फल और छाल हाथ से तोड़ी जाती है।

नीम वाला गांव..!

आस-पास के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि दूर-दराज के लोग भी पदमपुरा को नीम वाले गांव के रूप में जानते है। भेड़-बकरियों का नीम मनचाहे चारे के रूप में प्रचलित है लेकिन हजारों भेड़-बकरियां होने के बावजूद नीम को काट कर तोड़ कर उन्हें यहां खिलाया नहीं जाता है।

यह बात अलग है कि साल के आठ माह अपने पशुओं को डांग क्षेत्र (हाड़ौती व मध्य प्रदेश) में चराने ले जाने वाले चरवाहे इस गांव को नीम वाला गांव ही कहते हैं। देश लौटते वक्त जो साथी पीछे रह जाते हैं वे यहां पड़ाव डाल कर उन्हें सूचना देते हैं कि वे नीम वाले गांव में ठहर कर उनका इंतजार कर रहे हैं।

21वीं सदी का पेड़ और ग्लोबल वार्मिग का अचूक समाधान

नीम भारत का देशी पेड़ है जो अर्ध शुष्क परिस्थितियों में खासतौर से देश के हर हिस्से में पाया जाता है। खास बात यह है कि नीम आज के समय में गड़बड़ाते प्राकृतिक संतुलन और ग्लोबल वार्मिग रोकने में सबसे बड़ा सहायक है। इसी कारण संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे 21 वीं सदी का पेड़ घोषित किया है।

भारत में यह विभिन्न रूपों में बरसों से जनजीवन के साथ घुलामिला है। इसे कई नामों से जनमानसे में पुकारा जाता है। कोई जीवन देने वाला पेड़, प्राकृतिक दवा की दुकान, गांव की फार्मेसी और सभी रोगों के लिए रामबाण दवा कहता रहा है। भारत में सामान्य आबादी द्वारा 5000 साल से भी ज्यादा समय से इसका औषधीय उपयोग होता आ रहा है। वेद व पौराणिक ग्रंथों में इसके उपयोग का उल्लेख है।

आयुर्वेद में नीम के पेड़ को सर्वरोग निरामय का दर्जा प्राप्त है। आज नीम का उपयोग फिर तेजी से बढ़ा है। वानस्पतिक नाम के बतौर नीम से पहचाने जाने इस पेड़ को अंग्रेजी में मोरगोसा, संस्कृत में निंब, मराठी में निंबा, तमिल में वैंपू(वैंबू), तेलगू में कोंडावेपा, कन्नड़ में बेवू, मलयालम में वेपू, बंगाली में निम, गुजराती में लिमड़ा तथा पंजाबी में नीम्म नाम से जाना जाता है। नीम भारत से ही ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, दक्षिण पूर्वी एशिया, और अमरीका जैसे देशों में पहुंचा है।

आयुर्वेद की कारगर औषधि नीम है

नीम भारतीय आयुर्वेद में हर तरह से कई रोगों में कारगर माना गया है। इसमें पोटेशियम, लवण, क्लोरोफाइल, कैल्शियम, फॉस्फोरस, लोहा, थाइमाइन, रीबोफ्लासियम, निकोसीम, विटामिन सी और एक्सालिक एसिड के साथ अन्य रसायन मौजूद हंै। नीम के पते, फूल, टहनियां, छाल, गम व फल सभी का उपयोग विभिन्न रोगों के निदान के लिए होता है। यह ज्वर नाशक, मधुमेह रोधक, जीवाणुरोधी, है।

फ्लू, बुखार, गले में खराश, सर्दी, फंगस संक्रमण, त्वचा रोड, मलेरिया, अल्सर, आंत के कीड़े, आंख की बीमारी, नाक से खून आने, मतली, कफ, पित दमन, बवासीर, हठी मूत्र विकार, घाव, कुष्ठ रोग, दमा खांसी, ब्रेन ट्यूमर, खुजली रोगों के लिए इसका उपयोग होता रहा है।

हर तरफ नजर आता है नीम

उप सरपंच हरलाल गुर्जर तथा वार्ड पंच कालूराम गुर्जर बताते हैं कि गांव में गुर्जर, राजपूत के साथ भांबी, साधु, नाई, दरोगा तथा ढोली जाति के लोग भी हैं। सभी जाति के लोग ही नहीं किसी बाहरी व्यक्ति ने भी यहां जमीन खरीद की तो उसे पहले ही कह दिया जाता है कि उस जमीन पर नीम का पेड़ है तो उसे हटाया नहीं जा सकेगा।

गांव के राजस्व क्षेत्र में तीन हजार बीघा खातेदारी में दर्ज है। इसके अलावा सरकारी, पड़त तथा डूंगर (पहाड़) के रूप में भी तीन हजार बीघा जमीन है। छह हजार बीघा क्षेत्र में फैले इस गांव में लगभग में 25 हजार नीम के पेड़ आज भी देखे जा सकते हैं।

हाईवे से गांव की ओर मुड़ने के साथ ही नीम के लहलहाते पेड़ नजर आने लगते हैं। जो टूका, मायत्त, जारत्त, जरखड़ी, ब्यावर वाली डांग, कलनाडिया, तिकलियां, राजमेला, चौर गलिया, गवाड़िया, धौलिया, नीमाली, नाकी तथा तीन का टगड़ा डूंगर तक फैले हुए हैं।

1 टिप्पणी:

  1. खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो
    कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल
    निशाद और बाकी स्वर
    शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
    ..

    हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर
    ने दिया है... वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
    ..
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