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13 अगस्त 2012

भारत का विभाजन एक कडवा सच

भारत का विभाजन माउंटबेटन योजना के आधार पर तैयार भारतीय स्वतंत्रा अधिनियम१९४७ के आधार पर किया गया। इस अधिनियम में काहा गया कि 15 अगस्त 1947 को भारत एवं पाकिस्तान नामक दो अधिराज्य बना दिए जाएंगें और उनको ब्रितानी सरकार सत्ता सौंप देगी।[1] स्वतंत्रता के साथ ही 14 अगस्त को पाकिस्तानी डोमिनियन (बाद में इस्लामी जम्हूरिया ए पाकिस्तान) और 15 अगस्त को भारतीय यूनियन (बाद में भारत गणराज्य) की संस्थापना की गई। इस घटनाक्रम में मुख्यतः ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रांत को पूर्वी पाकिस्तान और भारत के पश्चिम बंगाल राज्य में बाँट दिया गया और इसी तरह ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत को पश्चिमी पाकिस्तान के पंजाब प्रांत और भारत के पंजाब राज्य में बाँट दिया गया। इसी दौरान ब्रिटिश भारत में से सीलोन (अब श्रीलंका) और बर्मा (अब म्यांमार) को भी अलग किया गया, लेकिन इसे भारत के विभाजन में नहीं शामिल किया जाता है। इसी तरह 1971 में पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश की स्थापना को भी इस घटनाक्रम में नहीं गिना जाता है। (नेपाल और भूटान इस दौरान भी स्वतंत्र राज्य थे और इस बंटवारे से प्रभावित नहीं हुए।)

15 अगस्त 1947 की आधी रात को भारत और पाकिस्तान कानूनी तौर पर दो स्वतंत्र राष्ट्र बने। लेकिन पाकिस्तान की सत्ता परिवर्तन की रस्में 14 अगस्त को कराची में की गईं ताकि आखिरी ब्रिटिश वाइसराय लुइस माउंटबैटन कराची और नई दिल्ली दोनों जगह की रस्मों में हिस्सा ले सके। इसलिए पाकिस्तान में स्वतंत्रता दिवस 14 अगस्त और भारत में 15 अगस्त को मनाया जाता है।

भारत के विभाजन से करोड़ों लोग प्रभावित हुए। विभाजन के दौरान हुई हिंसा में करीब 5 लाख[2] लोग मारे गए, और करीब 1.45 करोड़ शरणार्थियों ने अपना घर-बार छोड़कर बहुमत संप्रदाय वाले देश में शरण ली।


पृष्ठभूमि

भारत के ब्रिटिश शासकों ने हमेशा ही भारत में "फूट डालो और राज्य करो" की नीति का अनुसरण किया। उन्होंने भारत के नागरिकों को संप्रदाय के अनुसार अलग-अलग समूहों में बाँट कर रखा। उनकी कुछ नीतियाँ हिन्दुओं के प्रति भेदभाव करती थीं तो कुछ मुसलमानों के प्रति। 20वीं सदी आते-आते मुसलमान हिन्दुओं के बहुमत से डरने लगे और हिन्दुओं को लगने लगा कि ब्रिटिश सरकार और भारतीय नेता मुसलमानों को विशेषाधिकार देने और हिन्दुओं के प्रति भेदभाव करने में लगे हैं। इसलिए भारत में जब आज़ादी की भावना उभरने लगी तो आज़ादी की लड़ाई को नियंत्रित करने में दोनों संप्रदायों के नेताओं में होड़ रहने लगी।

सन् 1906 में ढाका में बहुत से मुसलमान नेताओं ने मिलकर मुस्लिम लीग की स्थापना की। इन नेताओं का विचार था कि मुसलमानों को बहुसंख्यक हिन्दुओं से कम अधिकार उपलब्ध थे तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करती थी। मुस्लिम लीग ने अलग-अलग समय पर अलग-अलग मांगें रखीं। 1930 में मुस्लिम लीग के सम्मेलन में प्रसिद्ध उर्दू कवि मुहम्मद इक़बाल ने एक भाषण में पहली बार मुसलमानों के लिए एक अलग राज्य की माँग उठाई।[तथ्य वांछित] 1935 में सिंध प्रांत की विधान सभा ने भी यही मांग उठाई। इक़बाल और मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने मुहम्मद अली जिन्ना को इस मांग का समर्थन करने को कहा।[तथ्य वांछित] इस समय तक जिन्ना हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्ष में लगते थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्होने आरोप लगाना शुरू कर दिया कि कांग्रेसी नेता मुसलमानों के हितों पर ध्यान नहीं दे रहे। लाहौर में 1940 के मुस्लिम लीग सम्मेलन में जिन्ना ने साफ़ तौर पर कहा कि वह दो अलग-अलग राष्ट्र चाहते हैं

"हिन्दुओं और मुसलमानों के धर्म, विचारधाराएँ, रीति-रिवाज़ और साहित्य बिलकुल अलग-अलग हैं।.. एक राष्ट्र बहुमत में और दूसरा अल्पमत में, ऐसे दो राष्ट्रों को साथ बाँध कर रखने से असंतोष बढ़ कर रहेगा और अंत में ऐसे राज्य की बनावट का विनाश हो कर रहेगा।"[

हिन्दू महासभा जैसे हिन्दू संगठन भारत के बंटवारे के प्रबल विरोधी थे, लेकिन मानते थे कि हिन्दुओं और मुसलमानों में मतभेद हैं। 1937 में इलाहाबाद में हिन्दू महासभा के सम्मेलन में एक भाषण में वीर सावरकर ने कहा था - आज के दिन भारत एक राष्ट्र नहीं है, यहाँ पर दो राष्ट्र हैं-हिन्दू और मुसलमान।[3] कांग्रेस के अधिकतर नेता पंथ-निरपेक्ष थे और संप्रदाय के आधार पर भारत का विभाजन करने के विरुद्ध थे। महात्मा गांधी का विश्वास था कि हिन्दू और मुसलमान साथ रह सकते हैं और उन्हें साथ रहना चाहिये। उन्होंने विभाजन का घोर विरोध किया: "मेरी पूरी आत्मा इस विचार के विरुद्ध विद्रोह करती है कि हिन्दू और मुसलमान दो विरोधी मत और संस्कृतियाँ हैं। ऐसे सिद्धांत का अनुमोदन करना मेरे लिए ईश्वर को नकारने के समान है।"[तथ्य वांछित] बहुत सालों तक गांधी और उनके अनुयायियों ने कोशिश की कि मुसलमान कांग्रेस को छोड़ कर न जाएं, और इस प्रक्रिया में हिन्दू और मुसलमान गरम दलों के नेता उनसे बहुत चिढ़ गए।

अंग्रेजों ने योजनाबद्ध रूप से हिन्दू और मुसलमान दोनों संप्रदायों के प्रति शक को बढ़ावा दिया। मुस्लिम लीग ने अगस्त 1946 में सिधी कार्यवाही दिवस मनाया और कलकत्ता में भीषण दंगे किये जिसमें करीब 5000 लोग मारे गये और बहुत से घायल हुए। ऐसे माहौल में सभी नेताओं पर दबाव पड़ने लगा कि वे विभाजन को स्वीकार करें ताकि देश पूरी तरह युद्ध की स्थिति में न आ जाए।

विभाजन की प्रक्रिया

भारत के विभाजन के ढांचे को '3 जून प्लान' या माउण्टबैटन योजना का नाम दिया गया। भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमारेखा लंदन के वकील सर सिरिल रैडक्लिफ ने तय की। हिन्दू बहुमत वाले इलाके भारत में और मुस्लिम बहुमत वाले इलाके पाकिस्तान में शामिल किए गए। 18 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद ने 'भारतीय स्वतंत्रता कानून' (इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट) पारित किया जिसमें विभाजन की प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया गया। इस समय ब्रिटिश भारत में बहुत से राज्य थे जिनके राजाओं के साथ ब्रिटिश सरकार ने तरह-तरह के समझौते कर रखे थे। इन 565 राज्यों को आज़ादी दी गयी कि वे चुनें कि वे भारत या पाकिस्तान किस में शामिल होना चाहेंगे। अधिकतर राज्यों ने बहुमत धर्म के आधार पर देश चुना। जिन राज्यों के शासकों ने बहुमत धर्म के अनुकूल देश चुना उनके एकीकरण में काफ़ी विवाद हुआ (देखें भारत का राजनैतिक एकीकरण)। विभाजन के बाद पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र में नए सदस्य के रूप में शामिल किया गया और भारत ने ब्रिटिश भारत की कुर्सी संभाली।

संपत्ति का बंटवारा

ब्रिटिश भारत की संपत्ति को दोनों देशों के बीच बाँटा गया लेकिन यह प्रक्रिया बहुत लंबी खिंचने लगी। गांधीजी ने भारत सरकार पर दबाव डाला कि वह पाकिस्तान को धन जल्दी भेजे[तथ्य वांछित] जबकि इस समय तक भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरु हो चुका था, और दबाव बढ़ाने के लिए अनशन शुरु कर दिया। भारत सरकार को इस दबाव के आगे झुकना पड़ा और पाकिस्तान को धन भेजना पड़ा। नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी के इस काम को उनकी हत्या करने का एक कारण बताया।[

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