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07 जुलाई 2012

भाई डॉक्टर अनवर जमाल का लेख



हरेक मक़सद हासिल करने के लिए एक रास्ता होता है।
इंसान के लिए भी एक रास्ता है, जिस पर चलकर उसे अपना मक़सद हासिल करना है।
जब इंसान अपना मक़सद ही भूल जाता है तो फिर वह रास्ते को भी भूल जाता है। आज इंसान अपने मक़सद को भूल गया है। इसीलिए वह अपने रास्ते से हट गया है। रास्ते से हटने के बाद इंसान भटकता फिर रहा है। इंसान भटक कर जिन राहों पर निकल गया है, उन पर चलने से उसकी मुसीबतें रोज़ ब रोज़ बढ़ती चली जा रही हैं।
आज समाज ने अपने लिए नशा, ब्याज और व्यभिचार भी जायज़ कर लिया है। कोई संसार को त्याग कर जंगल चला गया है। जंगल में कुछ हाथ न लगा तो कुछ लोग वापस आ गए हैं और माल बेचकर मुनाफ़ा कमा रहे हैं। इनके पास भारी भीड़ है। भीड़ देखकर ख़ुदग़र्ज़ राजनीति ने इन्हें अपना मोहरा बना लिया है। पहले राजनीति और व्यापार धर्म के अधीन हुआ करता था। आज धर्म को भी राजनीति और व्यापार के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा है। इसके लिए सबको अपने मतलब के हिसाब से धर्म की व्याख्या करनी पड़ी। एक धर्म की सैकड़ों व्याख्याओं ने सैकड़ों मतों को जन्म दिया। इन मतों ने मानवता को बांटकर रख दिया। हरेक मत का मठ बना और मठाधीश भी राजनीति और व्यापार करने लगे। इन मठाधीश को बुद्धिजीवियों ने चांदी काटते देखा तो उन्होंने समझा कि धर्म की रचना मठाधीशों ने अपना मतलब पूरा करने के लिए की है। वे नास्तिक बन गए। वे कहने लगे-‘ईश्वर का वुजूद ही नहीं है और न ही परलोक है। बस अच्छे इंसान बन जाओ, यही बहुत है।‘
ईश्वर, जिसने पैदा किया है, उसी को भुला दिया। परलोक, जहां जाना है, उसी मंज़िल को भुला दिया लेकिन इसके बावजूद इंसान यह नहीं भुला पाया कि इंसान को अच्छा बनना चाहिए।
अच्छाई क्या है और बुराई क्या है ?, कोई इंसान इसे अपनी बुद्धि से तय नहीं कर सकता। जो लोग हम पर हुकूमत करते हैं। उन्हें जनता अच्छा समझ कर चुनती है। बाद में उनके फ़ैसले जनता के हक़ में बुरे साबित होते हैं। नशा बेशक एक बुराई है। वे भांग और शराब बेचते हैं। क़ानून इन्हें बेचना जायज़ बताता है। आदमी अपने अंदर महसूस करता है कि नशा करना और नशीली चीज़ें बेचना तो क़ानूनी रूप से नाजायज़ होना चाहिए। क़ानून भी ग़लत चीज़ को सही बताए तो फिर ग़लत को ग़लत कौन बताएगा ?
धर्म स्थलों पर भी नशीली चीज़ें चढ़ावे में चढ़ने लगती हैं। धर्म ही नशे को बढ़ावा देगा तो फिर नशे का नाश कौन करेगा ?
धर्म के जयकारे लगाकर अधर्म के काम किए जा रहे हैं। विधवाओं के पुनर्विवाह को पाप बताया जा रहा है। उन्हें तिल तिल करके मरने पर मजबूर किया जा रहा है।
इंसान अपना मक़सद भूल जाए तो यही सब होता है। समाज को सुधारना है तो उसे उसका मक़सद याद दिलाना होगा। उसे मक़सद याद आएगा तो उसे अपना पैदा करने वाला भी याद आएगा और उसे अपनी मंज़िल भी याद आएगी। जब इंसान अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ना चाहेगा तो उसे अच्छा बनना ही पड़ेगा। इंसान को अच्छा बनने के लिए उन सभी धर्म-ग्रन्थों को पढ़ना होगा जिनमें ईश्वर और परलोक की बात की गई है। वे सब हीरे और मोतियों से ज़्यादा क़ीमती बातों से भरे हुए हैं। कोई भी ग्रन्थ सत्य से ख़ाली नहीं है लेकिन हरेक ग्रन्थ में सत्य की मात्रा अलग अलग है। किसी में थोड़ा सत्य है, किसी में ज़्यादा और किसी में पूरा। जिस ग्रन्थ में जितना ज़्यादा सत्य है, वह मानव जाति की उतनी ही ज़्यादा समस्याएं हल करने मे सक्षम है। सत्य के अंश से मनुष्य के जीवन की अंश मात्र समस्याएं हल होती है जबकि पूर्ण सत्य से मनुष्य की आर्थिक, सामाजिक, राजनैति और आध्यात्मिक सभी समस्याएं हल हो जाती हैं।
समस्याओं के हल का स्तर ही यह तय करता है कि किस ग्रन्थ में सत्य अंश मात्र है और किस ग्रन्थ में पूर्ण सत्य है ?
कोई भी मनुष्य पूर्ण सत्य नहीं जानता। पूर्ण सत्य को जानने वाला केवल एक ईश्वर है। सत्य का अंश मनुष्य द्वारा लिखे ग्रन्थों में भी मिल सकता है लेकिन पूर्ण सत्य केवल उसी ग्रन्थ में मिलेगा, जिसे ईश्वर ने मनुष्यों के मार्गदर्शन के लिए अवतरित किया होगा।

नशा, ब्याज और व्यभिचार को यही ग्रन्थ बुराई घोषित करता है। विधवा पुनर्विवाह को यही ग्रन्थ पुण्य घोषित करता है। जीने का सही तरीक़ा यही ग्रन्थ सिखाता है।
यही ग्रन्थ इंसान को उसका मक़सद याद दिलाता है और उसे पाने का सीधा रास्ता भी बताता है। जब से यह ग्रन्थ धरती पर अवतरित हुआ है, तब से ही यह अक्षय है। इसमें से न कुछ घटा है और न ही कुछ बढ़ा है। अक्षय परमेश्वर के गुण को उसकी वाणी में भी साफ़ तौर से देखा जा सकता है।
क्या ऐसा अद्भुत ग्रन्थ देखकर भी कोई यह कह सकता है कि इसे मनुष्य ने बनाया है ?
इस अक्षय और अजर अमर ग्रन्थ के पूर्ण व्यवहारिक आदर्श भी मौजूद हैं जबकि दूसरे ग्रन्थों का कोई पूर्ण व्यवहारिक आदर्श नहीं है। वे केवल उपदेश मात्र हैं। उनमें ऐसे उपदेश भी हैं। जो दुनिया भर में मशहूर हैं लेकिन उस उपदेश पर न तो उपदेश देने वाला स्वयं चला और न ही सुनने वाला चला। कोई चलना भी चाहे तो उस पर चल ही नहीं सकता।
ईश्वर की वाणी पर चलना संभव होता है क्योंकि ईश्वर जानता है कि मनुष्य की ताक़त कितनी है !
इंसान इस वाणी पर चले तो वह मतों के मकड़जाल से निकल जाएगा। धर्म के नाम पर राजनीति और व्यापार करने वाले यह बात बख़ूबी जानते थे। इसीलिए वे ईश्वर की वाणी के विरूद्ध भ्रामक बातें फैलाते रहे। भ्रम में कोई इंसान देर तक फंसा नहीं रह सकता। सत्य सामने आ ही जाता है।
आज सत्य सबके सामने है। सत्य में ही मुक्ति है।
समाज सुधार के लिए आत्म सुधार ज़रूरी है और आत्म सुधार के लिए सत्य को स्वीकार करना ज़रूरी है।
भ्रष्टाचार आदि के खि़लाफ़ बहुत से आंदोलन चले और उनमें करोड़ों लोग भी जुड़े लेकिन आखि़रकार वे सब फ़ेल हो गए क्योंकि उन आंदोलनों के नेताओं को पता ही नहीं था कि भीतरी बदलाव के बिना बाहरी बदलाव लाना संभव नहीं है। आज भी नेता यही ग़लती बार बार दोहरा रहे हैं। ऐसा वे जानबूझ कर कर रहे हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि लोगों की समस्याएं वास्तव में ही हल हो जाएं। वे लोगों के नेता बने रहना चाहते हैं, बस।
जीवन मात्र खाने-पीने और सांस लेने का ही नाम नहीं है। मौत के बाद भी ज़िंदगी है और वह अनन्त है। जो दुनिया में ख़ुद को अच्छा न बनाया, उसका अंजाम परलोक में भी ख़राब होगा। दुनिया का दुख बर्दाश्त किया जा सकता है लेकिन अनन्त जीवन में आदमी दुख भोगता रहे। यह दुख असहनीय होगा।
हरेक इंसान कल वही काटेगा, जो वह आज बो रहा है। इसलिए हरेक इंसान ख़ूब देख ले कि वह आज क्या बो रहा है ?
सारे सुधार की जड़ यही आत्मविश्लेषण है। अनन्त जीवन पाने के लिए भी यह ज़रूरी है।

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