जिला मुख्यालय से 28 किमी दूर कुआकोंडा के गढ़पदर में अनूठे ढंग से यह रस्म पूरी होती है। ग्रामीणों ने सदियों पुरानी परंपरा को संजोए रखी है। यहां कोंडराज देव की गुड़ी के सामने सेमल लकड़ी की होलिका सजती है। इस होलिका में माचिस से सुलगाई आग का इस्तेमाल नहीं किया जाता, बल्कि बांस की खपच्चियों को घिसकर पैदा की गई आग से सुलगाया जाता है। खपच्ची घिसने का काम गांव के ही तारम परिवार के लोग पुश्तैनी तौर पर करते आ रहे हैं।
डंडारी नाचा मुख्य आकर्षण : पुराने समय से प्रचलित डंडारी नाचा इस आयोजन का अभिन्न हिस्सा है। गुजरात के डांडिया से मिलते-जुलते इस नृत्य में बांस के 3 से 5 फीट लंबे टुकड़ों का इस्तेमाल होता है।
कोंडराजदेव की गुड़ी से मांझी घर तक बाजा मोहरी की धुन पर ग्रामीण डंडारी खेलते चलते हैं। यहां पर मैलावाड़ा गांव से डंडारी नृत्य करते पहुंचे गंगनादेई माता के सेवकों के दल की अगवानी के बाद दोनों समूह मिलकर देर रात मंदिर लौटते हैं। यहां धूमधाम से होलिका दहन कर बांस की डंडारियां भी होलिका की आग के हवाले कर दी जाती है।
डोंगरदेव तक पहुंचती है अग्नि
पुजारी परिवार के श्यामलाल बघेल के मुताबिक कोंडराज मंदिर में होलिका दहन के बाद आग लाकर पास ही स्थित डोंगरदेव मंदिर में भी दहन किया जाता है। इसके बाद राख का टीका माथे पर लगाकर लोग घर लौट जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि दंतेवाड़ा में होने वाले प्रसिद्ध होलिका दहन के लिए भी यहीं से आग ले जाने का रिवाज था, लेकिन समय के साथ इसमें बदलाव हो चुका है।
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