- डॉ. सुंदरलाल कथूरिया
उपनिषद वाक्य है
'संगच्छघ्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्।'
अर्थात् इकट्ठे चलें, एक जैस बोलें और हम सबके मन एक जैसे हो जावें- यह भावना प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसलिए यहां राजा और रंक, धनवान और संत सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यहां के तत्व चिन्तकों ने बिना किसी भेदभाव के मानव मात्र अथ च प्राणिमात्र के कल्याण की कामना की है।
'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत॥।'
अर्थात् संसार में सब सुखी रहें, सब नीरोग या स्वस्थ रहें, सब भ्रद देखें और विश्व में कोई दुःखी न हो। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' एक व्यापक मानव-मूल्य है। व्यक्ति से लेकर विश्व तक इसकी व्याप्ति है-व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, अर्न्राष्ट्र। गरज यह कि संपूर्ण विश्व इसकी परिधि में समाहित है।
यह वैयक्तिक मूल्य भी है और सामाजिक मूल्य भी, राष्ट्रीय मूल्य भी है और अंतरराष्ट्रीय मूल्य भी, राजनीतिक मूल्य भी है और नैतिक मूल्य भी, धार्मिक है और प्रगतिशील मूल्य भी। और यदि इन सबका एक शब्द में समाहार करना चाहें तो हम कह सकते हैं कि यह मानवीय मूल्य है।
इस मूल्य को सच्चे मन से अपनाए बिना मानवता अधूरी है, मनुष्य अधूरा है, धर्म और संस्कृति अधूरे हैं तथा राष्ट्र और विश्व भी अधूरा और पंगु है। यह मनुष्य की, मानव समाज की, राष्ट्र की अनिवार्यता है। यदि हम विश्व को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं तो हमें विश्वबंधुत्व की भावना को आत्मसात् करना ही होगा।
'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सूत्र द्वारा भारतीय मनीषियों ने जिस उदार मानवतावाद का सूत्रपात किया उसमें सार्वभौमिक कल्याण की भावना है। यह देश-कालातीत अवधारणा है और पारस्परिक सद्भाव, अन्तः विश्वास एवं एकात्मवाद पर टिकी है। 'स्व' और 'पर' के बीच की खाई को पाटकर यह अवधारणा 'स्व' का 'पर' तक विस्तार कर उनमें अभेद की स्थापना का स्तुत्य प्रयास करत है।
'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को राष्ट्रवाद का विरोधी मानने की भूल की जाती रही है। जिस प्रकार उदार मानवतावाद का राष्ट्रवाद से कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना का भी राष्ट्रवाद से कोई विरोध नहीं है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा शाश्वत तो है ही, यह व्यापक एवं उदार नैतिक-मानवीय मूल्यों पर आधृत भी है। इसमें किसी प्रकार की संकीर्णता के लिए कोई अवकाश नहीं है। सहिष्णुता इसकी अनिवार्य शर्त है।
निश्चय ही आत्म-प्रसार, 'स्व' का 'पर' तक विस्तार स्वयं को और जग को सुखी बनाने का साधन है। वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप समय और दूरी के कम हो जाने से 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना के प्रसार की आवश्यकता और भी बढ़ गई है। किसी देश की छोटी-बड़ी हलचल का प्रभाव आज संसार के सभी देशों पर किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ता है। फलतः समस्त देश अब यह अनुभव करने लगे हैं कि पारस्परिक सहयोग, स्नेह, सद्भाव, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और भाईचारे के बिना उनका काम न चलेगा। संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना, निर्गुट शिखर सम्मेलन, दक्षेश, जी-15 आदि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के ही नामान्तर रूपान्तर हैं।
इन राजनीतिक संगठनों से यह तो प्रमाणित होता ही है कि विश्व के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे राष्ट्र पारस्परिकता और सहअस्तित्व की आवश्यकता अनुभव करते हैं तथा इन अवधारणाओं के बीच 'वसुधैव कुटुम्बकम्' में निश्चय ही विद्यमान थे।
sarthak ...alekh ....
जवाब देंहटाएंTHIS IS VERY TRUE .GREAT ARTICLE .THANKS . YE HAI MISSION LONDON OLYMPIC
जवाब देंहटाएं