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22 फ़रवरी 2012

गुरु ग्रंथ साहिब की इस हकीकत में छिपा है सबसे बड़ा सबक

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पंजाब की भूमि वीर योद्धाओं के शौर्य गाथाओं और मानवता के लिए सर्वस्व त्याग देने वाले लोगों की कहानियों से भरी है। इसी प्रांत में सिख धर्म का उदय हुआ और यह देश- दुनिया तक फैला। इन कहानियों के स्वर्णभंडार से हम आपके लिए कुछ ऐसी कहानियां लेकर आए हैं जो सिख धर्म गुरुओं से संबंधित है। पेश है गुरु अर्जुन के जीवन की कुछ बातें-

अपने तीन पूर्ववर्तियों की तरह गुरु अर्जुन की राह भी कांटों-भरी ही थी। जैसे ही गुरु के रूप में उनके प्रतिस्थापन की घोषणा हुई, उनका बड़ा भाई पृथीचंद बुरी तरह उनका दुश्मन बन बैठा। यह अर्जुन का सौभाग्य था कि श्रद्धेय बुद्धा और भाई गुरदास उनके वफादार सहयोगी थे और उन्होंने उनके खिलाफ पृथीचंद की चालों को नाकाम कर दिया और इस प्रकार समुदाय में फूट पड़ने से रुकी।

अर्जुन सन् 1595 में अमृतसर लौटे और उन्होंने पाया कि पृथीचंद अपने नापाक इरादों को अंजाम देने की कोशिश में लगा था। वह पवित्र रचनाओं का एक संकलन तैयार कर रहा था, जिसमें उसने कुछ स्वरचित पद भी ठूंस लिए थे। अर्जुन एक नकली धर्मग्रंथ के समाज में प्रसारित होने के खतरे से परेशान थे।

उन्होंने अपने बाकी के कामों पर प्राथमिकता देते हुए, अपने पूर्ववर्ती गुरुओं की रचनाओं का संकलन करना प्रारंभ कर दिया। उनके पास अपने पिता की रचनाएं तो थीं ही। उन्होंने गुरु अमरदास के पुत्र मोहन से विनती की कि वह पहले तीन गुरुओं की रचनाएं उन्हें सौंप दें। देश-भर में उनकी प्रतियों की खोज में उन्होंने अपने शिष्यों को भेजा।

उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के विभिन्न संप्रदायों को भी अपना योगदान देने को कहा। और फिर वे रामसर तालाब के पास जाकर रहने लगे, जो कि अमृतसर के शोर-शराबे और गहमा-गहमी भरे बाजारों से दूर था। यहां वे पूरी तरह अपने काम में जुट गए। रचनाओं का चुनाव गुरु अजरुन करते थे और लिखने का काम भाई गुरदास ने किया। इस संकलन में ज्यादातर रचनाएं गुरु अजरुन की अपनी ही थी।

गुरु अर्जुन अपने काम में व्यस्त थे कि बादशाह अकबर को किसी ने यह भ्रामक खबर पहुंचाई कि अर्जुन जिस धार्मिक संकलन पर काम कर रहे थे, उसमें इस्लाम की निंदा वाले अंश थे। उत्तर की तरफ यात्रा के दौरान बादशाह रास्ते में रुके और उस संकलन को देखने की इच्छा व्यक्त करने लगे। भाई बुद्धा और गुरदास ने पांडुलिपि की एक प्रति बादशाह के सम्मुख रखी और उसमें से कुछ पद पढ़कर उन्हें सुनाए।

बादशाह का संदेह दूर हुआ और उसने पवित्र पुस्तक की तैयारी के लिए इक्यावन सोने की मोहरें दान दीं और गुरु को सम्मानस्वरूप एक लबादा भेंट किया तथा दो लबादे उनके शिष्यों को भेंट किए। गुरु की ही विनती पर उसने किसानों की हालत ठीक करने के लिए उस जिले का सालाना लगान भी माफ कर दिया, क्योंकि वहां के किसान सूखे के चलते परेशानी में थे।

अगस्त, 1604 में गुरु अर्जुन का यह पवित्र काम पूरा हुआ। गुरु ग्रंथ साहिब तैयार हो गया था। अब उसे औपचारिक रूप से अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया गया। भाई बुद्धा को स्वर्ण मंदिर में गुरु ग्रंथ साहिब का प्रथम ग्रंथी नियुक्त किया गया।

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