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01 फ़रवरी 2012

जनाब ने 'होशियारी' को दे दी मात, रूह को भेज दिया 'पैगाम'



आपने पढ़ा और सुना होगा कि ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल वेबसाइटों के ज़रिए अरब मुल्कों में इंक़लाब बरपा हुआ है, लेकिन यह शायद पहला मौक़ा है जब किसी रूह को ट्विटर के ज़रिए पैग़ाम दिया गया।

यह पैग़ाम पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के बेटे और पीपुल्स पार्टी के चेयरमैन बिलावल भुट्टो ने 4 जनवरी 2012 को ट्विटर के ज़रिए दिया। जिसमें कहा गया था कि ‘सलमान तासीर हमें माफ़ कर दें, लोगों को माफ़ कर दें कि जब उन्हें बोलना चाहिए था तब वो ख़ामोश रहे।’ सलमान तासीर जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के दौर में पंजाब के गवर्नर थे। जब मुशर्रफ़ की हुकूमत रुख़सत हुई और पीपुल्स पार्टी की हुकूमत आई, उस व़क्त भी वो पंजाब के गवर्नर रहे। यह कहना ज्यादा दुरुस्त होगा कि वो अपनी आख़िरी सांस तक उस ओहदे पर रहे।

वह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की सगी मौसी के बेटे थे। पंजाब के अदबी हलक़ों से उनकी पुरानी यारी थी। वो एक निहायत कामयाब कारोबारी श़ख्स थे। सियासत से उन्हें इश्क़था। वो इस मैदान में उतरे और इसमें भी कामयाब रहे। सियासत करते हुए वो उसूलों को ख़ातिर में नहीं लाए और वही किया जिसे वो व़क्त की ज़रूरत समझते थे।

यही वजह है कि उनकी श़िख्सयत विवादास्पद रही। एक डिक्टेटर का सख्त विरोध करने वाले मुझ जैसे लोगों को समझ में नहीं आता था कि जम्हूरियत पसंद होने का दावा करने के बावजूद जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ की हुकूमत में वो गवर्नर कैसे बने। यह बात भी मेरी समझ में नहीं आई कि जनरल मुशर्रफ़ की हुकूमत जाने और उनके मुल्क से रुख़सत होने के बाद वो पीपुल्स पार्टी के इतने क़रीब आख़िर कैसे हो गए कि पहले वाले रौब और दबदबे से पंजाब पर हुकूमत करते रहे।

उनकी श़िख्सयत के यही पहलू थे, जिनकी वजह से मुल्क का एक बड़ा तबक़ा उनको आलोचना का निशाना बनाता था। सलमान तासीर ने गवर्नर हाउस के दरवाज़े पीपुल्स पार्टी के कारकुनों के लिए खोल दिए और उन्होंने कभी ये ख्याल नहीं किया कि एक सूबे के गवर्नर को निष्पक्ष होना चाहिए। इन वजहों से वो विवादित श़िख्सयत रहे। उन्होंने अल्पसंख्यकों का खुलकर साथ दिया और पंजाब में जब भी कहीं ईसाई या हिंदू संप्रदाय के श़ख्स के साथ जयादती हुई, तो वे फ़ौरन उस समुदाय तक पहुंचे और उनकी मुश्किल हल करने की कोशिश की।

नवंबर 2010 में एक ईसाई औरत आसिया नूरीन गिऱफ्तार हुई। उसका किसी मुसलमान औरत से ज़ाती झगड़ा था। झगड़ा बढ़ा तो उसने आसिया बीबी पर ऐसा इल्ज़ाम लगाया कि उसे गिऱफ्तार कर लिया गया। उसे मौत की सज़ा सुना दी गई। सलमान तासीर इस सज़ा को ग़लत समझते थे। उनका ख्याल था कि वो सदर पाकिस्तान आसिफ़ अली ज़रदारी से आसिया बीबी को माफ़ी दिलवाएंगे।

इसी ख्याल की बुनियाद पर वो शेख़पुरा जेल गए, जहां आसिया बीबी सज़ा का इंतजार कर रही थी। आसिया बीबी पढ़ी-लिखी नहीं थी, सलमान तासीर ने दऱख्वास्त पर आसिया बीबी का अंगूठा लगवाया और उस काग़ज़ को लेकर सदर के पास गए। सदर रहम की इस दऱख्वास्त पर दस्तख़त के मामले को टालते रहे। यहां तक कि उस दऱख्वास्त पर सदर के दस्तख़त नहीं हुए और सलमान तासीर इस्लामाबाद में एक रेस्त्रां से बाहर आते हुए 4 जनवरी 2011 को दिनदहाड़े उनके ही सरकारी गार्ड के हाथों क़त्ल कर दिए गए।

उनके क़ातिल ने वहां मौजूद दर्जनों लोगों की मौजूदगी में सलमान के क़त्ल को स्वीकार किया और कहा कि यह श़ख्स ‘शातिमे-रसूल’ था इसलिए मैंने इसे क़त्ल कर दिया है। क़ातिल देखते ही देखते मज़हबी गिरोहों का हीरो बन गया। लोगों का ख्याल था कि सलमान तासीर ने जिस पीपुल्स पार्टी की बेपनाह और बढ़-चढ़कर हिमायत की थी, वो उनके हक़ में बोलेगी और लोगों को हक़ीक़त से आगाह करेगी। लेकिन वो ख़ामोश रही और उसने अपने गवर्नर के क़त्ल पर कोई विरोध प्रदर्शन नहीं किया।

इस तमाम बहस से नज़र में आने वाली असल बात यही है कि पीपुल्स पार्टी ने सलमान के लिए कुछ नहीं किया। एक लंबी ख़ामोशी है जो पार्टी पर तारी है। 4 जनवरी को तासीर के क़त्ल को एक बरस पूरा हो चुका है। उस रोज़ उनके ख़ानदान और कुछ क़रीबी दोस्तों ने उनका सोग मनाया और बस।

ख़ुदा का शुक्र है कि चंद आलिम आज भी इस नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं। मगर उनकी अपनी जमात (पीपुल्स पार्टी) ने जो सुलूक किया, उस पर इज़हारे-अफ़सोस के सिवा क्या किया जा सकता है। हद तो यह है कि उनकी पहली बरसी के मौक़े पर गवर्नर हाउस में उनके लिए दुआ तक नहीं हुई और न क़ौमी एसेंबली में किसी को सलमान तासीर की याद आई।’

5 जनवरी को सलमान तासीर के नाम बिलावल भुट्टो का ट्विटर पैगाम पढ़कर मुझे हैरत हुई, तो इसलिए कि साल भर बाद जब बिलावल को उनकी याद आई, तब भी वो पार्टी के लोगों से अपने इस गवर्नर के लिए एक छोटा-सा जलसा भी न करवा सके, जिसने पीपुल्स पार्टी की हिमायत नाजायज़ हद तक जाकर की थी। सलमान तासीर की रूह से माफ़ी मांगने और शर्मिदा होने का व़क्त तो अलबत्ता गुज़र चुका है।

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