पराजित व तेजहीन देवता, देवराज इन्द्र के साथ अपनी व्यथा सुनाने भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे। उनकी कातर प्रार्थना सुन कर भगवान विष्णु योगनिद्रा से जागे तथा उन्होंने देवताओं से आने का कारण पूछा। तब देवता दोनों हाथ जोड़ कर बोले 'भगवन्। आप सर्वशक्तिमान और भक्तों की रक्षा करने वाले हैं। सृष्टि के आरम्भ में आपने ही देवगणों को राज्य सौंप दिया।
दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। हमें आपकी कृपादृष्टि की आवश्यकता है।' भगवान विष्णु बोले- देवेन्द्र। यह सत्य है कि सृष्टि के समस्त प्राणी मेरे ही अंशावतार हैं। यह भी अटल सत्य है कि देवता और दैत्य मुझे समान रूप से प्रिय हंै। जिस प्रकार विभिन्न स्तुतियों से आप देवगण मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न करते रहते हैं, ठीक उसी प्रकार दैत्य भी नियम पूर्वक तथा कठिन तपस्या कर मुझे प्रसन्न करने का प्रयास निरन्तर करते रहते हैं। फिर मैं एक भक्त के लिए दूसरे का अहित कैसे कर सकता हूं?
इसलिए मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता। भगवान विष्णु के श्रीमुख से यह वचन सुनते ही देव दुखी हो गए। देवताओं को अत्यंत निराश देख देवराज इन्द्र ने सोचा अगर कुछ न किया तो देवताओं का उनके ऊपर से विश्वास उठ जाएगा। यह सोचकर इन्द्र पुन: श्री विष्णु भगवान से प्रार्थना करने लगे, 'हे भगवन, आपके सिवा इस सृष्टि में ऐसा कोई नहीं हैं, जो हमारी सहायता कर सकता है।'
भगवान विष्णु के परामर्श से इन्द्र और देवता राजा पुरंजय के पास गए। पुरंजय इक्ष्वाकु के पौत्र थे। वह बड़े वीर, पराक्रमी और बलशाली राजा थे। इन्द्र ने राजा पुरंजय से देवगुरु संग्राम में उनकी सहायता करने की प्रार्थना की। तब राजा पुरंजय बोले- 'देवेन्द्र, मैं आपकी सहायता को तैयार हूं। किन्तु मैं युद्ध तभी करूंगा, जब आप मेरे वाहन बनें।'
इन्द्र ने राजा पुरजंय के वाहन बैल का रूप धारण करने की शर्त स्वीकार कर ली। तब देवताओं ने राजा पुरंजय के नेतृत्व में दैत्यों पर आक्रमण कर दिया। वीर पुरजंय ने बैल रूपी इन्द्र पर सवार हो दैत्यों का संहार किया। शीघ्र ही उन्होंने दैत्यों को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार इन्द्र को वाहन बनाने के कारण पुरजंय 'इन्द्र वाहक' और बैल के कुकुद (पीठ) पर बैठने के कारण ककुत्स्थ नाम से प्रसिद्ध हुए।
बहुत सुन्दर सार्थक रचना। धन्यवाद।
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