जीवन में समाज, कार्यक्षेत्र में मेल-मिलाप या अपनों के बीच ही उठने-बैठने के दौरान बातों, विचारों या व्यवहार को लेकर दूसरों से मतभेद पैदा होते हैं। स्वार्थ पूर्ति न होना भी इसका कारण हो सकता है। लेकिन इससे आख़िर में व्यक्ति ही नहीं उससे जुड़े लोग भी एक-दूसरों को दोषी मानकर मन में दुर्भाव बना लेते हैं। ऐसी भावना असल में व्यक्ति विशेष को ही ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। क्योंकि खराब मनोदशा व्यक्ति को अपने कार्य और लक्ष्य से दूर कर बुरे नतीजे देती है।
सवाल यह बनता है कि क्या ऐसा संभव है कि व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में ऐसी स्थितियों से बचकर संतुलित और सफल जीवन बीता सके? इस बात का हल रामचरित मानस में लिखे एक प्रसंग में मिल सकता है। जानते हैं वह चौपाई और प्रसंग का संदेश -
बोले लखन मधुर मृदु बानी, ग्यान बिराग भगति रस सानी।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता, निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।
इस प्रसंग के मुताबिक राम, लक्ष्मण और सीता को वनवास के दौरान कष्ट में देख जब निषादराज माता कैकई को दोषी ठहराते हैं। तब लक्ष्मण निषादराज को ज्ञान, वैराग्य और भक्ति से भरी बात कहते हुए समझाते हैं कि कोई किसी को सुखी या दु:खी नहीं करता बल्कि सभी अपने किए गए कर्मों का फल भोगते हैं।
इस चौपाई में संदेश यही है कि स्वार्थ या हितपूर्ति की सोच में व्यक्ति या समूह एक-दूसरे को दोषी मानकर कुछ भी फैसला या प्रतिक्रिया करने से पहले यह जरूर सोच-विचार करे कि उस बात के लिए वह स्वयं कितने जिम्मेदार है। ऐसा करने से मन में आए क्रोध, द्वेष या कटु भावना घटती है। मन अशांत नहीं होता, सोच सही दिशा में जाती है और संबंधों में मिठास आती है।
तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे मज़हब के लोग देख कर कहें कि अगर उम्मत ऐसी होती है,तो नबी कैसे होंगे? गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.
19 जनवरी 2012
यह 1 बात है बिगड़े रिश्तों को सुधारने का आसान उपाय
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