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17 दिसंबर 2011

भगवद् गीता 'उग्रवादी साहित्य'!

मास्को. हिंदुओं के पवित्र ग्रंथों में से एक भगवद् गीता पर रूस में कानूनी प्रतिबंध लगाए जाने और उसे पूरे रूस में 'उग्रवादी साहित्य' करार दिए जाने की आशंका उत्पन्न हो गई है। सरकारी अभियोजकों द्वारा दायर इससे सम्बंधित एक मामले में साइबेरिया के तोमस्क शहर की एक अदालत सोमवार को अपना अंतिम फैसला सुनाने वाली है।

भगवद् गीता के बारे में यह अंतिम फैसला प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का रूस दौरा समाप्त होने के ठीक दो दिन बाद आने वाला है। मनमोहन सिंह रूसी राष्ट्रपति दमित्री मेदवेदेव के साथ द्विपक्षीय शिखर बैठक के लिए 15 से 17 दिसम्बर तक रूस के दौरे पर थे। यह मामला तोमस्क की अदालत में इस वर्ष जून से चल रहा है। इस मामले में इस्कान के संस्थापक ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा हिंदु ग्रंथ पर रचित 'भगवद् गीता एस इट इज' पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई है और इसे सामाजिक कलह फैलाने वाला साहित्य घोषित किया गया है। साथ ही रूस में इसके वितरण को अवैध घोषित करने की भी मांग की गई है।

इसके मद्देनजर मास्को में बसे भारतीयों (लगभग 15,000), और इस्कान के अनुयायियों ने मनमोहन सिंह और उनकी सरकार से अपील की है कि वे भगवद् गीता के पक्ष में इस मुद्दे को सुलझाने के लिए कूटनीतिक हस्तक्षेप करें। भगवद् गीता, महर्षि वेद व्यास द्वारा रचित महाभारत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। रूस में इस्कान के अनुयायियों ने भी नई दिल्ली स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय को इस मामले में तत्काल हस्तक्षेप करने के लिए लिखा है।

मध्य मास्को में स्थित 40 वर्ष पुराने श्रीकृष्ण मंदिर के पुजारी और इस्कान से जुड़े साधु प्रिय दास ने आईएएनएस से कहा, "इस मामले में सोमवार को तोमस्क अदालत का अंतिम फैसला आने वाला है। हम चाहते हैं कि भारत सरकार रूस में हिंदुओं के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए हरसम्भव प्रयास करे।" सरकारी अभियोजकों द्वारा मामला दायर किए जाने के बाद अदालत ने इस ग्रंथ पर विशेषज्ञों की राय लेने के लिए इसे इस वर्ष 25 अक्टूबर को तोमस्क युनिवर्सिटी भेज दिया था। लेकिन रूस के हिंदू संगठनों, खासतौर से इस्कान के अनुयायियों का कहना है कि युनिवर्सिटी इस काम के काबिल नहीं है, क्योंकि वहां 'इंडॉलोजिस्ट्स' नहीं हैं।

हिंदुओं ने अदालत में कहा है कि यह मामला धार्मिक पक्षपात और रूस के एक बहुसंख्यक धार्मिक समूह की असहिष्णुता से प्रेरित है। हिंदुओं ने मांग की है कि धार्मिक परम्पराओं के पालन के लिए उनके अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। दास ने कहा, "उन्होंने न केवल भगवद् गीता पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की है, बल्कि हमारे धार्मिक विश्वासों और उपदेशों को चरमवादी करार देने की भी कोशिश की है।"

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