हदीस शरीफ में आया है कि 'तीन लोगों की दुआ कभी खारिज नहीं होती, एक आदिल बादशाह, दूसरा कोई मजलूम शख्स और तीसरा रोजा खोलने से पहले रोजादार की दुआ।'
मालूम हुआ कि सारा दिन रोजा रखने के बाद जब रोजादार अफ्तार के लिए दस्तरख्वान पर बैठता है, तो उस वक्त अल्लाह तआला की खास रेहमत उस पर होती है। ऐसे वक्त में उसकी दुआओं को कुबूलियत का दर्जा मिलता है।
कहा गया है कि इसलिए इस वक्त को फालतू बातों में गंवाकर गुजारने की बजाए दुआएं करना चाहिए। कई लोगों को यह शिकायत होती है कि वह दुआएं करते हैं, लेकिन उसका असर दिखाई नहीं देता।
यह नेकियां उसके लिए आखिरत के वक्त काम आती हैं।
कहा जाता है कि मरने के बाद जब बंदा खुदा के सामने हाजिर होगा और उसे उसकी दुआओं के बदले मिलने वाली नेकियां गिनाई जाएंगी, तो उसके दिल से यही बात निकलेगी कि काश, उसकी कोई दुआ दुनिया में कुबूल ही न हुई होती, तो आज आखिरत में यह नेकियां उसके लिए काम आतीं।
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