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15 नवंबर 2011

हमारे धर्मग्रंथों में गंगा स्नान को जरूरी क्यों माना गया है?

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गुरु ज्ञान होता है और ज्ञान ही गुरु होता है। गुरु सब कर्म करता हुआ इस अहंकार से शून्य होता है कि ''मैं कर्म कर रहा हूं। वह यह भली प्रकार जानता है कि मैं जो कर रहा हूं उसका नियन्ता अथवा कराने वाला कोई और है जिसने इस देह को माध्यम बना दिया है। जिससे वह कोई नियति-विरुद्ध कार्य में संलग्न नहीं होता। महाराज जनक इसके प्रतीक थे। महाराज जनक ने ज्ञान की व्याख्या आरंभ की-परिपक्व ज्ञान से निर्वाण रूपी परम शान्ति प्राप्त होती है। वासनाओं का सम्पूर्ण त्याग ही श्रेष्ठ है, वहीं विशुद्ध अवस्था है और वही मोक्ष है। इस तत्व का ज्ञान जीवन्मुख बनाता है। उसके लक्षण हैं- सुखों तथा दु:खों से अनासक्त और हर्ष-क्रोध, काम एवं शोक आदि से अन्त:करण का मुक्त होना। दृष्टि का अनायास ही अन्तर्मुखी हो जाना। आकांक्षारहित तथा अपेक्षारहित मान-अभिमान सभी स्थितियों में एक समान न तो मैं का भाव होना और न ही पराया भाव। इन गुणों से युक्त तुम बाहर और अन्त:करण में उसे परब्रह्म को देखते हुए पूर्ण मुक्तावस्था में साक्षी भर रहते हो, तुम मुक्त हो।

तात्पर्य यह है कि स्व-स्वरूप को जानने वाला स्वयं का साक्षी होता है, किन्तु इस सोपान तक पहुंचने के लिए आधार हैं शम, आत्मचिंतन और सत्संग आदि। इन्द्रियों का दमन करना शम, आत्मचिंतन और सत्संग आदि। इन्द्रियों का दमन करना शम है। आत्मानुभव, सदग्रंथ (शास्त्र) तथा गुरु के वचनों में श्रद्धा और ऐक्यभाव से अभ्यास द्वारा आत्मचिंतन होता है। आत्मचिंतन में यह दृढ़ विश्वास होता है कि यह दृश्य-अदृश्य उस विराट की समग्र क्रिया है, चित्त की धड़कन उसका अंश मात्र है। यह आत्मदृष्टि है।

इसकी प्राप्ति गुरु कृपा या सत्संग से होती है। अन्त:करण की शुद्धि-सत्संग की गंगा में स्नान करने से ही होती है। वास्तव में गंगा स्नान का अर्थ है परमात्मा में डूबना, शरीर व मन को पवित्र करना। जब तन पवित्र होगा तो मन में पवित्र विचार आएंगे। जब मन में विचार अच्छे होंगे तो हमारे भीतर ज्ञान का उदय होगा। ज्ञान किसी भी व्यक्ति को कभी भी मिल सकता है। शर्त यह है कि हम इनके लिए तैयार रहें। अगर तैयार न रहें तो ज्ञान के कई अवसर हमारे हाथों से निकल जाएंगे। गंगा शिव के मस्तक से शुरू होकर सागर तक जाती है। वह निरंतर बहती है, कहीं ठहरी नहीं है। इसलिए उसका स्नान सबसे ज्यादा पुण्यकारी है। बहती नदी, प्रतीक है कि ज्ञान भी हमेशा प्रवाह मान होना चाहिए। अगर ज्ञान ठहर जाए तो हमारी तरक्की रुक जाती है। इसलिए परमात्मा चाहिए तो अपने भीतर ज्ञान का उदय करें, फिर उस ज्ञान को प्रवाह मान बनाएं।

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