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05 अक्तूबर 2011

एक लख पूत, सवा लख नाती, लकड़ी दीन्ही न कोई

कितनी अजीब और चौंका देने वाली बात है कि त्रेता युग में इतने बड़े वंश के स्वामी रावण की चिता पर कोई लकड़ी डालने वाला नहीं था। ..और आज उसी रावण को बनाने वाले लाखों हैं, जलाने वाले करोड़ों।

एक बड़ा सीधा-सा सवाल है कि लंका तो हनुमान जला आए थे, फिर राजतिलक में विभीषण को राम ने कौन सी लंका सौंपी? जली हुई या मरम्मत करवाई हुई? जवाब उतना ही आसान.. कि ताप पाकर सोना जलता नहीं, उसमें और निखार आता है।

कितना बड़ा कूटनीतिज्ञ था रावण- कि त्रेता से इस युग तक हर बार, हर समय, हर मौके पर उसे मारने वाले भी उसकी लंका को नहीं जला पाए।

नतीजा देखिए- हर आमोखास के पास आज भी अपनी लंका है। सोने जैसी सुहानी जो है। सरकारों के पास अपने दंभ की लंका। मंत्रियों के पास अपने अहम् की लंका। किसी के पास धन की लंका।

किसी के पास आचार की, किसी के पास विचार की और किसी के पास भ्रष्टाचार की। सबके सब रावण को जलाते हैं। उसकी लंका को कोई जलाता-फूंकता नहीं।
खैर, दशहरे के एक दिन पहले शहर के कुछ कोनों पर निकले तो हर तरफ लंका नजर आई। सैकड़ों की तादाद में रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद खड़े दिखे। जैसे फसल लहलहा रही हो। दंभ की। अहम् की। मोह-माया की।

रामायण लिखकर महाकवि तुलसीदास तो अमर हो गए, पर जालौर का तुलसीराम पेट पालने के लिए न्यू सांगानेर रोड (मानसरोवर) पर रावण बनाकर बेच रहा है। वह अलग-अलग रावणों की कीमत बता रहा था और उसका परिवार कभी अंगद की तरह डटा हुआ, कभी मंदोदरी की तरह संकोची, तो कभी उन ऋषियों की तरह मोहताज था, जिनकी कन्या (मंदोदरी) को छीनकर रावण ने अपनी भार्या बना लिया था। (एक क्षेपक के अनुसार कुछ ऋषियों ने अपनी जान बचाने वाली मेंढक को जिस कन्या का रूप दिया, वही मंदोदरी कहलाई।)

इस लंका की गंध भी अलग ही थी। हम गरीबों के घरों की तरह। चारपाइयों के नीचे घुसाकर रखे हुए ट्रंकों और टीनों की तरह हर समय छिपकर बैठी हुई भी। खूंटियों, रस्सियों पर लटकते कपड़ों की तरह निशंक भी.. और राम या हनुमान के कैलेंडरों की तरह दीवारों पर लटकी हुई भी।

रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद की अपनी अलग-अलग विशेषताएं थीं। रावण की नाभि में अमृतकुण्ड था। कुम्भकर्ण छह महीने सो कर एक दिन जागता था और इस एक दिन की आहट से ही पृथ्वी-पाताल कांपते थे।

वह तो भला हो मां सरस्वती का, जो जिह्वा पर बैठ गईं वरना छह महीने जागने का वरदान मांग लिया होता तो जाने क्या होता! मेघनाद को वही मार सकता था जो १४ साल तक सोया न हो और इतने ही समय ब्रह्मचर्य का पालन किया हो। लेकिन इस लंका में जहां ये तीनों बिक रहे थे, ज्यादा फर्क नहीं था। न बनाने वाले मानते, न खरीदने वाले। जो बड़ा- वो रावण। उससे छोटा कुम्भकर्ण और सबसे छोटा मेघनाद। मोटा फर्क ये दिखा कि हर रावण के दस शीश थे और बाकी दोनों के एक-एक।

हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था देखिए कि जो रावण बिकने से बच जाता है उसे खुद बनाने वाले ही जला देते हैं। क्यों, का जवाब ये आया कि जिस बांस से रावण बन गया, उसे फिर कोई खरीदता नहीं। कोई किसी काम में नहीं लेता। ज्यादा सोचें तो ख्याल आता है कि ऐसा रावण जलाना ही क्यों? ..और बनाना भी क्यों, जो आखिर में बचकर अपनी ही पूंजी को फुंकवा दे। खैर, रावण मंडी से निकलते-निकलते इस सोच पर भी मिट्टी डल गई। मैयत की मिट्टी में आखिरी मुट्ठी की तरह।

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