हम अक्सर इस उलझन में रहते हैं कि हमारा कर्तव्य क्या है। जो किताबी बातें हैं वो कर्तव्य है या जिन परिस्थितियों से हम गुजर रहे हैं, उसमें हमारी भूमिका कर्तव्य है। अधिकतर बार ऐसा होता है कि यह समझने में ही सारा वक्त गुजर जाता है कि हम करें क्या।
क्या करें, क्या न करेें, क्या सही है और क्या गलत है, किस कार्य को करने से धर्म की, नैतिकता की और इंसानियत की मयार्दा का उल्लंघन होता है। यह जानने में कई बार बेहद कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि कई बार अपने लाभ या भलाई को ध्यान में रखकर किया गया कार्य धर्म की नजरों में गलत या अनैतिक साबित होता जाता है।
वो कार्य जिसमें स्वयं की और दूसरों की सच्ची भलाई हो वही व्यक्ति का कर्तव्य या फर्ज है। कर्तव्य हर व्यक्ति का उसकी उम्र, स्थिति क्षमता के अनुसार अलग-अलग हो सकता है। कोई एक कार्य पूरी तरह से ऐसा नहीं है जो हर समय हर किसी के लिये कर्तव्य हो। विद्यार्थी के लिये पढ़ाई-लिखाई, किसान के लिये खेती तो सैनिक के लिये सीमाओं की रक्षा करना ही उसका पहला कर्तव्य है। इन तीनों का कर्तव्य अलग होकर भी धर्म है।
आइए भगवान कृष्ण के जीवन में देखते हैं कर्तव्य के सही अर्थ को। वे सर्वशक्तिमान थे, सर्व ज्ञाता थे। उन्होंने धरती पर कहीं भी हो रहे अनैतिक कार्य, अत्याचार और भ्रष्टाचार को मिटाना अपना कर्तव्य समझा। वे इसके लिए समर्थ भी थे। राक्षसों का वध, द्वारिका और इंद्रप्रस्थ जैसे नगरों की स्थापना, महाभारत युद्ध, नरकासुर से लेकर जरासंघ तक असुरों का वध, ऐसे सारे मुश्किल भरे काम श्रीकृष्ण ही कर सकते थे। वे इसके लिए सक्षम भी थे। इसलिए उन्होंने इसकी जिम्मेदारी भी ली।
हमारा भी पहला कर्तव्य है कि हम अपनी क्षमताओं के अनुसार जिम्मेदारी से अपना काम करें। जहां हम लोक हित में आवाज उठा सकते हैं वहां आगे भी आएं।
तुम अपने किरदार को इतना बुलंद करो कि दूसरे मज़हब के लोग देख कर कहें कि अगर उम्मत ऐसी होती है,तो नबी कैसे होंगे? गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.
25 अक्तूबर 2011
अपना फर्ज कुछ इस तरह से निभाएं...
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