इससे स्थानीय लोगों को रोजगार तो मिलेगा ही, पंचायतों की आय भी बढ़ सकती है। मगर, सरकारी नीतियों की वजह से ये संभव नहीं हो पा रहा है। ईंधन के रूप में बबूल उपलब्ध नहीं होने और दूसरे ईंधन की कीमतें ज्यादा बढ़ने से राज्य में लगे बायोमास पावर प्लांट बंद होने के कगार पर आ गए हैं।
नरेगा ने बढ़ाई समस्या :
बायोमास डवलपर्स का कहना है कि बबूल लेने के लिए प्रक्रिया काफी लंबी और बोझिल है। एक-एक पंचायत और वन सुरक्षा समितियों में बबूल के लिए जाना उनके लिए भी मुश्किल भरा काम है। नरेगा के कारण इसकी कटाई के लिए मजदूर भी आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाते हैं।
दूसरी समस्या यह है कि नियामक आयोग ने ईंधन के रूप में इसकी दरें 1345 रुपए प्रति टन ही मंजूर की हुई हैं, जबकि पड़ोसी राज्यों में यह 2000 से 2500 रुपए प्रति टन तक बिकती है। वे इतना महंगा ईंधन खरीदकर ज्यादा दिन प्लांट नहीं चला सकते। नियामक आयोग ने दो साल से उनकी बिजली दरों में संशोधन नहीं किया है।
इस बारे में राजस्थान अक्षय ऊर्जा निगम के प्रोजेक्ट डायरेक्टर अनिल पाटनी का कहना है कि बायोमास पावर प्लांट्स की याचिका पर शीघ्र फैसला करने के लिए सरकार और आयोग को कई बार लिखा जा चुका है। उम्मीद है जल्दी ही इस बारे में फैसला होगा।
नीति का सरलीकरण जरूरी :
पर्यावरणविद् सूरज जिद्दी कहते हैं कि बिलायती बबूल को न तो जानवर खाते हैं और न ही इसका कोई अन्य उपयोग हो पाता है। वन, कृषि विभाग और किसानों के लिए यह एक समस्या बन गई है। इसे जितना काटो उतना ही ज्यादा उगती है। बिना खाद-पानी और मेहनत के हर तीसरे साल इसकी भरपूर पैदावार हो सकती है। इससे ग्रीन पावर के क्षेत्र में राजस्थान देश में अग्रणी हो सकता है।
सरकार इसे बायोमास बिजलीघरों को ईंधन के रूप में उपलब्ध कराए तो इससे स्थानीय लोगों को रोजगार देने के साथ ही पंचायतों की आय भी बढ़ाई जा सकती है। इसके लिए मौजूदा बायोमास नीति का सरलीकरण करने और प्रक्रिया को व्यावहारिक बनाया जाना जरूरी है।
अटक सकता है 3000 करोड़ का निवेश :
राजस्थान में अभी बायोमास एनर्जी के लिए करीब 3000 करोड़ का निवेश आने की संभावना है। इसके लिए कई कंपनियों ने आवेदन कर रखे हैं। जब मौजूदा प्लांट्स को ही घाटे और ईंधन नहीं मिल पाने के कारण बंद हो रहे हैं तो आने वाले प्लांट्स या तो रुक सकते हैं अथवा उनमें देरी हो सकती है।
सरकारी नीतियों के कारण आ रही समस्या
राजस्थान अक्षय ऊर्जा निगम के अनुसार राजस्थान में बबूल की उपलब्धता को देखते हुए ही वर्ष 2004 में बायोमास पॉलिसी बनाई गई थी। इसको काटने, सुखाने तथा रखवाली करने के तौर पर स्थानीय लोगों को काफी मात्रा में रोजगार मिलता।
इसीलिए पॉलिसी में राजस्व भूमि के लिए पंचायतों और वन भूमि के लिए वन सुरक्षा समितियों के माध्यम से बबूल बेचने की व्यवस्था की गई है। कुछ ग्राम पंचायतों ने तो बबूल बेचने में रुचि दिखाई है, लेकिन ज्यादातर पंचायत प्रतिनिधियों के इसमें रुचि नहीं लेने के कारण पावर प्लांटों को बबूल नहीं मिल पा रही है।
ग्रीन एनर्जी यानी सस्ती और भरपूर बिजली
>3.60 रुपए प्रति यूनिट पर औसत खरीदी जाती है सामान्य बिजली।
>0.70 पैसे करीब 20 प्रतिशत ट्रांसमिशन छीजत, लाइनों का किराया आदि।
>4. 30 रुपए प्रति यूनिट (लगभग) में पड़ती है बिजली।
>5.50 रुपए प्रति यूनिट तक खरीदनी पड़ेगी बायोमास बिजली।
>0.70 पैसे करीब ट्रांसमिशन छीजत किराया आदि बचेगा। स्थानीय स्तर पर ही इसका उपयोग होगा।
>0.50 रुपए प्रति यूनिट (लगभग) महंगी पड़ेगी बायोमास बिजली।
ये होगा फायदा
प्रदूषण रहित बिजली के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्बन क्रेडिट का पैसा मिलेगा। हजारों स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा। हमारा बिजली उत्पादन बढ़ेगा तो बाजार से संकट के नाम पर 7 से 8 रुपए प्रति यूनिट महंगी बिजली नहीं खरीदनी पड़ेगी। बायोमास बिजली से ट्रांसमिशन छीजत, किराए आदि की बचत होगी। इसकी आय से ही पंचायतें कई तरह के विकास कार्य करवा सकेंगी।
ये हो सकता है हल
बायोमास पावर डवलपर्स एसोसिएशन के अनुसार सरकार बायोमास प्लांट्स के आसपास ही बिलायती बबूल का क्षेत्र डवलप करे। इससे परिवहन लागत घटेगी। ग्राम पंचायत और वन सुरक्षा समितियों के माध्यम से बबूल उपलब्ध कराने के बजाय राज्य स्तर पर टेंडर करके इसकी कटाई करवाए।
इसका पैसा पंचायतों और वन सुरक्षा समितियों को हस्तांतरित किया जा सकता है। दूसरा रास्ता ये हो सकता है कि सरकार पावर प्लांट्स को राजस्व और वन भूमि के उपयोग का लाइसेंस दे सकती है। निर्धारित लाइसेंस फीस पंचायतों और वन समितियों में जमा कराई जा सकती है।
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